मेरी हार्दिक इच्छा है कि कोई घर ऐसा न हो, जिसमें गाय न हो; गाय का दूध न हो। हर घर में गाय हो और गाय का दूध पीने को मिलना चाहिये। गाय ने मानवबुद्धि की रक्षा की है।- स्वामी श्रीशरणानन्दजी

जो मनुष्य अपने दोष की ओर ध्यान न देकर दूसरों को दोषी मानता है और इस ख्याल से कि ‘यहाँ मेरा आदर नहीं है, मेरे साथ लोग व्यवहार ठीक नहीं करते’, एक जगह छोड़कर दूसरी जगह जाता है, उसको वहाँ भी आदर नहीं मिलता; क्योंकि दूसरों से सुख चाहने वाले मनुष्य का कोई भी आदर नहीं करता।- स्वामी श्रीशरणानन्दजी

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ ॥ मेरे नाथ ! ॥ ॥ हरि: शरणम्‌ !॥
॥ God's Refuge ! ॥ ॥ My Lord ! ॥ ॥ God's Refuge ! ॥

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प्रश्नोत्तरी (गुजराती में)

गाय सारे राष्ट्र और विश्वकी माता है

( ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज )

1. हम गायकी सेवा करेंगे तो गायसे हमारी सेवा होगी ।

2. शुद्ध संकल्पमें संकल्पसिद्धि रहती है। शुद्ध संकल्पका र्अर्थ क्या है? जिसकी पूर्तिमें लोगों का हित हो और प्रभुकी प्रसन्नता हो, उसको शुद्ध संकल्प कहते हैं। जब संकल्प शुद्ध होता है तो सिद्ध होता ही है, ऐसा प्रभुका मंगलमय विधान है।

3. सेवक कैसा होना चाहिये, इसपर विचार करनेसे लगता है कि सेवक के हृदयमें एक मधुर-मधुर पीड़ा रहनी चाहिये और उत्साह रहना चाहिये तथा निर्भयता रहना चाहिये एवं असफलता देखकर कभी भी निराश नहीं होना चाहिये। सेवक से सेवा होती है, सेवा से कोई सेवक नहीं बन सकता।

4. इस देश में ही नहीं,.समस्त विश्वमें मानव और गायका ऐसा सम्बन्ध है कि जैसा मानवशरीर में प्राण। अब अन्य देशों में गाय का सम्बन्ध आत्मीय नहीं रहा, कहीं आर्थिक बना दिया, कहीं कुछ बना दिया। मेरे ख्यालसे गाय का सम्बन्ध आत्मीय सम्बन्ध है। गाय मनुष्यमात्र की माता है।

5. लोग गायका आर्थिक पक्ष सामने रखकर सोचते हैं कि गाय कि सेवा तनसे और मनसे होना चाहिये। आज हमलोगोंकी ऐसी स्थूल दृष्टि हो गयी है कि धनकी सेवाको बहुत बड़ी सेवा समझते हैं। बहुत बड़ी सेवा तो मन की सेवा है, जिसे हर भाई-बहन कर सकता है।

5. लोग गायका आर्थिक पक्ष सामने रखकर सोचते हैं कि गाय कि सेवा तनसे और मनसे होना चाहिये। आज हमलोगोंकी ऐसी स्थूल दृष्टि हो गयी है कि धनकी सेवाको बहुत बड़ी सेवा समझते हैं। बहुत बड़ी सेवा तो मन की सेवा है, जिसे हर भाई-बहन कर सकता है।

6. हमारा मन और गाय यह एक होना चाहिये। हमारे मन में गाय बस जाय, किसलिये? इसलिये नहीं कि हमको कोई लाभ होगा, पर इसलिये कि अगर विश्व में गाय है तो सात्विक प्राण, सात्विक बुद्धि और दीर्घायुवाली बात पूरी हो सकती है।

7. केवल इसी बात को लेकर कि हमारी संस्कृतिमें गाय है, हमारे धर्म में गाय है, यह सब तो है ही, लेकिन मेरा विश्वास है कि गायका और मनुष्यके प्राणों का बहुत ही घनिष्ट सम्बन्ध है। गाय मानवीय प्रकृति से जितनी मिल-जुल जाती है, उतना और कोई पशु नहीं मिल पायेगा।

8. बच्चेके मरनेका जितना शोक होता है और उसके पैदा होनेपर जितना हर्ष और उत्सव होता है, वैसे ही गायके मरने और पैदा होनेपर शोक और हर्ष होता था, यह हमने बचपन में देखा था।

9. जिस गाय का बच्चा मर जाय उसका दूध नहीं पीते थे।आज तो बच्चा मारकर ही दूध निकालते हैं।

10. गाय जितनी प्रसन्न होती है,उतने ही उसके दूध में विटामिन्स उत्पन्न होते हैं और गाय जितनी दु:खी होती है, उतना ही दूध कमजोर होता है।

11. मेरी हार्दिक इच्छा है कि कोई घर ऐसा न हो, जिसमें गाय न हो; गाय का दूध न हो। हर घर में गाय हो और गाय का दूध पीने को मिलना चाहिये। गाय ने मानवबुद्धि की रक्षा की है।

12. बेईमानीका समर्थन करना और उससे एक-दूसरेपर अधिकार जमाना, यह बढ़ता जा रहा है । इसका कारण है कि बुद्धि सात्विक नहीं है, बुद्धि सात्विक क्यों नहीं? कारण मन सात्विक नहीं है । मन सात्विक क्यों नहीं? कारण शरीर सात्विक नहीं है। शरीर सात्विक नहीं है, तो इसका कारण? आहार सात्विक नहीं है।

13. मैं आपसे निवेदन करना चाहता था कि सचमुच जितना आपलोग गाय के सम्बन्धमें जानते हैं, उसका हजारवाँ हिस्सा भी मैं नहीं जानता हूँ, लेकिन क्या सचमुच आपलोग गाय के साथ मातृ-सम्बन्ध जोड़नेके लिए राजी हैं? अगर हाँ, तो हमारा बेड़ा पार हो जायगा।

14. जो लोग सेवा करना चाहते हैं--वे कैसे हैं, इस बातपर जोर डालिये। समाज क्या करता है, राज्य क्या करता है, कुछ लोग देते हैं कि नहीं, वह गौण है। मुख्य बात यह है कि अपने दिलमें गायके प्रति पीड़ा होती है कि नहीं?

15. गाय हमारी ही नहीं, मानवसमाजकी माँ है, सारे राष्ट्रकी और सारे विश्वकी माँ है। गायकी रक्षा होती है तभी प्रकृति भी अनुकूल होती है, भूमि भी अनुकूल होती है। गायकी सेवा होनेसे भूमिकी सेवा होती है और भूमि स्वयं रत्न देने लगती है।

16. जैसे-जैसे आप गोसेवा करते जायँगे, वैसे-वैसे आपको यह मालूम होता जायगा कि गाय आपकी सेवा कर रही है। आपको यह लगेगा कि आप गाय कि सेवा कर रहे हैं तो गाय हर तरह से स्वास्थ्य की दृष्टिसे, बौद्धिक दृष्टिसे, धार्मिक दृष्टिसे आपकी सेवा कर रही है।

17. हम सच्चे सेवक होंगे तो हमारी सेवा होगी, हमारी सेवाका मतलब मानवजातिकी सेवा होगी, मानवमात्रकी सेवासे ही सब कुछ हो सकता है। मानव जब सुधरता है तो सब कुछ सुधरता है और मानव जब बिगड़ता है तो सब कुछ बिगड़ जाता है।

कल्याण भाग 84 पृष्ट 638 से

प्रेम की विलक्षणता

प्रियता एक ऐसा अलौकिक तत्व है कि इसकी कभी पूर्ति नहीं होती, और पूर्ति न होने से ही अनन्त है, असीम है । इसकी कोई सीमा नहीं है । इसका कभी अन्त नहीं है, और नित-नव रस की अभिव्यक्ति है । यह प्रियता का सहज स्वभाव है । देखिए, आपकी प्रियता किसमें है--यह प्रश्न ही नहीं है । चाहे जिसमें हो । किन्तु प्रियता का मूल्य समान ही है । आप विचार करें, कि आप किसी से कहें कि हम आपसे प्रेम करते हैं, किन्तु हमारे पास जो कुछ है, वह तो हमारा है, तुम्हारा नहीं है । तो वह क्या कहेगा? भाई, प्रेम करते हो कि धोखा देते हो?

तात्पर्य क्या निकला ? जिसके आप प्रेमी हैं, उसको अपना सब कुछ देना पड़ता है। और किसी से आप कहें कि हम आपको प्रेम तो करते हैं, पर हमारी यह बात पूरी कर दो। तो वह क्या कहेगा? प्रेम करते हो कि मेरा भोग करते हो? प्रेम में काम नहीं है। प्रेम में अपने पास अपना करके कुछ नहीं है। उसी को न ! प्रेमकी प्राप्ति होती है। अब आप बताइये कि प्रेमका मूल्य क्या हुआ? यानी यह जो आप सोचते हैं कि हमारा प्रेमास्पद सुन्दर होगा तो हम प्रेम करेंगे। तो इसके भीतर क्या ध्वनि निकलती है कि आप प्रेम के बहाने प्रेमास्पद का भोग करना चाहते हैं। तभी न ! आप कहते हैं कि वे कैसे हैं?

जरा विचार तो कीजिये। यह जो लोगों का भ्रम है कि प्रभु कैसे हैं? काम के हैं कि बेकाम के हैं? तब हम उससे प्रेम करेंगे। तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप अपने सुख के लिये कुछ आशा रखते हैं। तब सोचते हैं कि वे कैसे हैं। यदि आप प्रेमी हैं, तो कहाँ यह प्रश्न आता है कि वे कैसे हैं। और कहाँ यह प्रश्न आता है कि वे कहाँ हैं ! कहाँ यह प्रश्न आता है कि वे क्या करते हैं ! चाहे जैसे हों, चाहे जहाँ हों, चाहे कुछ करें, अपने है और प्रिय हैं। यह है प्रेम की दीक्षा। अगर आप यह सोचते हैं कि हम देखेंगे, अच्छे लगते हैं कि नहीं। तो यह बात तो भोगी के जीवन की है, प्रेमी के जीवन की बात नहीं है।

तो क्या इसका अर्थ यह है कि प्रेमास्पद सुन्दर नहीं है ? इसका अर्थ यह नहीं है कि सुन्दर नहीं हैं । क्यों ? प्रेमी को तो प्रेमास्पद में नित-नव सुन्दरता का भास होता है--इसका अर्थ यह नहीं है कि वह इसलिए प्रेमी है कि वे सुन्दर हैं । इसका अर्थ यह है कि वह प्रेमी है, इसलिये प्रेमास्पद सुन्दर है । यह एक बड़ा रहस्य रहता है । यह जो प्रेमास्पद के वर्णन में प्रेमियों ने बड़ी-बड़ी महिमायें गाईं, और साधारण प्रेमी होने से पहले उस महिमा के कारण आकर्षित हुए । और अगर कल्पना करो कि कहीं सुने हुये के अनुसार महिमा न निकली, तो ? आप प्रेमी रहेंगे ? आप प्रेमी नहीं हो सकते ।

मेरा निवेदन यह था कि प्रेमी होने के लिए इस बात की आवश्यकता नहीं कि आप यह जानें कि हमारे प्रियतम कैसे हैं। इस बात की आवश्यकता नहीं है। क्यों ? अगर कैसे हैं--यह सोचकर आप प्रेमी होना चाहते हैं, तो प्रेमी नहीं हो सकते । क्यों ? प्रेमी क्यों नहीं हो सकते ? कि यह बात तो आप तब सोचेंगे, जब आपको प्रेमास्पद से कुछ लेना हो। जब हमें किसी से लेना होता है, तब हम सोचते हैं कि वे कैसे हैं। और जबतक आपको कुछ लेना है, तब तक प्रेमियों की सूची में नाम लिखा जायेगा क्या? जब तक आपको भोग चाहिये, मोक्ष चाहिये, जब तक आपको कुछ चाहिए, तब तक आप कैसे कह सकते हैं कि प्रेमियों की सूची में हमारा नाम लिखा जा सकता है? नहीं लिखा जा सकता।

जिसे कुछ नहीं चाहिए--एक बात । और जिसको अपने पास अपना करके कुछ नहीं रखना है--दो बात । और मिलन में भी और वियोग में भी जिसके जीवन में नित-नव प्रियता है । यह नहीं कि मिलन-काल में तो प्रेम है, और वियोग में प्रेम नहीं है, या वियोग-काल में तो प्रेम है, और मिलन-काल में नहीं है । प्रेमी के जीवन पर जब आप विचार करेंगे, तो आपको ऐसा मानना ही पड़ेगा कि प्रेमी के लिए मिलन और वियोग का कुछ अर्थ ही नहीं रहता है ।

इस सम्बन्ध में किसी प्रेमिका की बात है। एक कोई प्रेमिका थी। उसका जो प्रेमास्पद था, वह कहीं बाहर चला गया था। वह उसके वियोगमें मरणासन्न हो गई। उसकी एक चतुर सखी थी। उसने कहा कि अरी बहन ! वे तो अभी तक नहीं आये, और तेरे जीवन की अन्तिम घड़ियाँ आ गई अन्त मति सो गति, अब तेरी अन्तिम घड़ियाँ हैं, तो अब अन्त के समय पर उस जगदीश्वर, जगदाधार का ध्यान कर ! वह कहने लगी, " अच्छा वे नहीं आये ! अब ये प्राण पखेरु उड़ जायँगे ! अच्छी बहन, मैं जगदीश्वर से प्रार्थना करती है।" अब उसकी प्रार्थना सुनिये।

वह कहती है-" हे जगदीश्वर! हे जगदाधार!! इस शरीर में जो पॄथ्वी-तत्व है, वह उसी भूमि में जाकर मिल जाय, जहाँ मेरे प्राणनाथ विचरते हैं। हे जगदीश्वर ! हे जगदाधार !! इस शरीर में जो जल-तत्व है, वह उस जल में जाकर मिल जाय, जो जल मेरे प्रियतम की सेवा में काम आता है। इस शरीर में जो अग्नि-तत्व है, उस दीपक की ज्योति में जाकर मिल जाय, जहाँ मेरा प्रियतम रहता है । हे जगदीश्वर! इस शरीर में जो वायु-तत्व है, वह उसी वायु में जाकर मिल जाय, जो वायु मेरे प्रियतम पर झली जाती है । इस शरीर में जो आकाश-तत्व है, वह उसी आकाश में जाकर मिल जाय, जहाँ मेरे प्रीतम का नित्यवास है।"

क्या माँगा उसने? विचार तो कीजिये। " मेरे पास जो कुछ है, उनका है, उनके लिए है। और वे न आयें तब भी मेरे हैं। और मेरे होनेसे ही मुझको प्यारे हैं।" अब आप देखिये- निर्ममता आ गई, निष्कामता आ गई, आत्मीयता आ गई। प्रीतम भी आ गया । प्रीतम ने कहा--अरे सखी ! हमने तो सुना था कि यह तो मरी जा रही है । यह तो बड़ी हट्टी-कट्टी सी है । बोले हे प्राणनाथ ! जिसके लिए मरी जा रही थी, जब वही आ गया, तब कैसे मरेगी ! किन्तु मरणासन्न हो गई । तो तू क्यों मरी जा रही है ? कि यों मरी जा रही हूँ कि हे प्यारे ! आप चले जायेंगे ।

तो जब तक मिलन में वियोग न भासे, तो प्रेम कैसा ! और वियोग में मिलन न भासे, तो प्रेम कैसा ? प्रेम ही तो एक ऐसा तत्व है, जो मिलन में वियोग, और वियोग में मिलन का दर्शन कराता है । इसीलिये तो उसकी पूर्ति नहीं होती । यदि मिलन में वियोग का भास न रहता तो प्रेम पूरा हो जाता । तो प्रेम नाश भी नहीं होता, प्रेम पूरा भी नहीं होता । क्यों ? वहाँ मिलन और वियोग समान ही हैं । तो जहाँ मिलन और वियोग समान हैं, आप सोचिये, वहाँ नित-नव प्रियता और नित-नव रस से भिन्न क्या हो सकता है !

इसीलिये प्रेम कि प्राप्ति में ही जीवन की पूर्णता है । अब वह प्रेम आप किसके साथ करेंगे ? जब यह प्रश्न आपके सामने आये कि आप किसके साथ करेंगे ? बोले, जो हमें जानता है, जिसे हम नहीं जानते । हम जिसे जानते हैं, वह प्रेम से सन्तुष्ट नहीं होता । उसको वस्तु चाहिये, उसको सामर्थ्य चाहिये, उसे प्रेम नहीं चाहिये । तो सच पूछिये, प्रेम उसकी भूख है, जो हमें जानता है, पर जिसे हम नहीं जानते । और सेवा किसकी माँग है ? जिसे हम जानते हैं । जिसे हम जानते हैं, उसकी आप सेवा कर सकते हैं । किसके नाते ? जो आपका प्रेमास्पद है ।

प्रेमास्पद के नाते की हुई सेवा प्रेम से अभिन्न करती है । क्यों ? वह जो करने की रुचि है, करने की जो सामर्थ्य है, वह सेवा द्वारा प्रीति में परिणत हो जाती है, प्रेम में बदल जाता है । इस दृष्टि से सेवा प्रीति में, प्रीति सेवा में ओत-प्रोत है । यदि प्रेम की प्राप्ति हो गई, तो उसका क्रियात्मक रुप सेवा है । और जो सेवा की प्राप्ति हो गई, तो उसकी परावधि प्रेम है । इससे यह सिद्ध होता है कि जीवन की पूर्णता एकमात्र प्रेम की अभिव्यक्ति में है । और प्रेम की प्राप्ति में परिस्थिति हेतु नहीं है, कोई अवस्था हेतु नहीं है, कोई योग्यता हेतु नहीं है । प्रेम की प्राप्ति में एकमात्र जिसे कुछ नहीं चाहिये, जिसका अपना कुछ नहीं है, जिसका कोई अपना है । यानि जो बेसामान का है और जिसे कुछ नहीं चाहिये, उस पर भी उसने स्वीकार किया है कि आप मेरे हैं।

आप विचार तो कीजिये, निष्काम हुए बिना निर्मम हुए बिना, क्या हम किसी को अपना कह पायेंगे? नहीं कह पाते । आप कहते हैं कि अपनी सन्तान को अपना कहते हैं । तो जरा विचार कीजिये, जब आपकी सन्तान आपके मन के विरुद्ध कोई काम करती है, तब आप उसका मुँह भी नहीं देखना चाहते । यही आपका अपना कहना है? विचार कीजिये । आप किसी को अपना कह नहीं सकते, जब तक आप कुछ भी चाहते हैं । देखिये आप किसी के भी प्रेमी हो जाते हैं, तो सभी के प्रेमी हो जाते हैं। जो किसी का प्रेमी होता है, वह सभी का प्रेमी होता है ।

एक बार ऐसी ही बात चल रही थी जे. कृष्णमूर्ति जी की किसी के साथ । जे. कृष्णमूर्ति ने पूछा-- तुम किससे प्रेम करते हो? तो उसने कह दिया कि मैं अपनी पत्नी से प्रेम करता हूँ । उन्होंने तुरन्त कहा--यदि तुम्हारी पत्नी किसी दूसरे से प्रेम करे, तो तुम उससे प्रेम करोगे ? बोले --नहीं । तो प्रेम करते हो कि शासन करते हो ? तो आप बाप बनकर बेटे पर शासन करते हैं, मित्र बनकर मित्र पर शासन करते हैं, व्यक्ति बनकर समाज पर शासन करते हैं । और कहते हैं कि हम प्रेम करते हैं । भैया, जिसे प्रेम करना आ जायेगा, फिर उसको कुछ पाना ही शेष नहीं रह जायेगा ।

किन्तु एक बात अवश्य है कि जब तक आप प्रेमी नहीं होते, तब तक आपके जीवन में जो नीरसता है, जो अभाव है, जो क्षोभ है, जो क्रोध है, वह नाश नहीं हो सकता । इसलिये मानव-जीवन की पूर्णता प्रेम की प्राप्ति में है । और प्रेम की प्राप्ति का उपाय --मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिये, आप मेरे हैं, आप चाहे जैसे हों, चाहे जहाँ हों, और चाहे कुछ करो, यह नहीं, कि जो मैं चाहूँ, सो करो । तुम चाहे कुछ करो, चाहे जहाँ रहो, और चाहे जैसे हो, पर अपने होने से अत्यन्त प्रिय हो । यह प्रेमी का जीवन है ।

॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you lovable! ॥

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