॥ हरि: शरणम्‌ !॥ ॥ मेरे नाथ ! ॥ ॥ हरि: शरणम्‌ !॥
॥ God's Refuge ! ॥ ॥ My Lord ! ॥ ॥ God's Refuge ! ॥

कृपा

1

किसी भी साधक को यह नहीं समझना चाहिए कि ‘मुझे अमुक प्रकार की योग्यता प्राप्त नहीं है, इसलिये मुझे भगवान् नहीं मिल सकते’। यह मानना भगवान् की महिमा को न जानकर उनकी कृपा का अनादर करना है; क्योंकि भगवान् अपनी कृपा से प्रेरित होकर ही साधक को मिलते हैं।(संत-सौरभ)

2

अपने बल का अभिमान छोड़कर साधक जब यह विकल्प-रहित दृढ़ विश्वास कर लेता है कि मुझ पर भगवान् की कृपा अवश्य होगी, मैं उनका कृपापात्र हूँ उसी समय उस पर भगवान् की कृपा अवश्य हो जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं है।(संत-सौरभ)

3

महाघोर मोहरुपी समुद्र से क्या कोई भी प्राणी अपने बल से पार हो सकता है? कदापि नहीं। उनका होकर ही उन्हें पा सकता है और उनकी कृपा मात्र से ही अनन्त संसार से पार हो सकता है।(सन्त-समागम-२)

4

हरेक परिस्थिति में प्रभु की कृपा का दर्शन करने से उसका आदर करने से भगवान् की कृपा फलीभूत होती है।(संत-सौरभ)

5

जिस पर भगवान् की कृपा होती है, उसको दुनिया से ऐसा थपेड़ा मिलता है कि फिर वह उसकी ओर मुँह नहीं करता।(संत-सौरभ)

6

उनकी अहैतुकी कृपा आवश्यक वस्तु बिना माँगे ही दे देती है और अनावश्यक माँगनेपर भी नहीं देती। इस दृष्टिसे कुछ भी माँगना अपनी बेसमझीका परिचय देना है और उनके मंगलमय विधानका अनादर करना है।(संतपत्रावली-२-पेज-४७)

7

प्रभु अनन्त हैं, उनकी कृपा भी अनन्त है; अत: उनकी कृपा से जो कुछ मिलता है, वह भी अनन्त मिलता है। प्रभु की प्राप्ति का साधन भी प्रभु की कृपा से ही मिलता है।

प्रेम

1

जिस पर विश्वास होता है, उससे सम्बन्ध हो जाता है। जिससे सम्बन्ध होता है, उसी का चिन्तन होता है। और जिसका चिन्तन होता है, उसी में प्रेम होता है। भगवान् पर विश्वास और प्रेम स्वाभाविक होना चाहिए, किसी प्रकार का जोर डालकर नहीं, क्योंकि प्रयत्नसाध्य वस्तु स्थायी नहीं होतीं।(संत-सौरभ)

2

जिसमें जितनी चतुराई-चालाकी होती है, उतना ही वह प्रेम के राज्य से दूर रहता है और जिसमें जितना भोलापन होता है, उतना ही वह प्रेम के साम्राज्य में प्रवेश पाता है। (संतवाणी-६)

3

अगर किसी के प्रति भी तुम्हारे हृदय में प्रेम की कमी होती है या प्रेम तुम नहीं दे सकते हो तो तुम प्रभु से तो प्रेम नहीं कर सकते। (संतवाणी-४)अगर किसी के प्रति भी तुम्हारे हृदय में प्रेम की कमी होती है या प्रेम तुम नहीं दे सकते हो तो तुम प्रभु से तो प्रेम नहीं कर सकते। (संतवाणी-४)

4

जब तक किसी प्रकार की वासना शेष है, तब तक समझना चाहिए कि प्रेम उत्पन्न नहीं हुआ; क्योंकि प्रेम उत्पन्न होने पर हृदय आनन्द तथा समता से भर जाता है और सब ओर अपना आपा ही नजर आता है। (संतपत्रावली १)

5

परस्पर में (शरीर के अंगों में) प्रीति की कितनी गहरी एकता है कि पैर में काँटा लगता है तो आँख में आँसू निकलते हैं। आँख में जब चॊट लगती है तब पैर लड़खड़ाता है। इसी प्रकार समस्त विश्व के साथ हमारी स्नेह की एकता हो। (संतवाणी-६)

6

जिसके हॄदय में भोग-सुखों का लालच और काम-क्रोधादि विकार मौजूद हैं, वह प्रेम की प्राप्ति तो क्या, प्रेम की चर्चा करने तथा सुनने का भी अधिकारी नहीं है। वास्तव में तो जिसके हृदय में ममता, आसक्ति, कामना और स्वार्थ की गन्ध भी न हो, वही प्रेमी हो सकता है।(संत-उद्बोधन)

7

प्रेमरुप धन अधिक-से-अधिक छिपाकर रखना चाहिए। यहाँ तक कि मन, इन्द्रियों आदि को भी पता न चले। नहीं तो ये निर्मल प्रेम को गन्दा कर देंगे। (संतपत्रावली १)

8

मत में, स्वभाव में, व्यक्तित्व में चाहे कितना भी भेद क्यों न हो, उसे सहन करे। उस भेद का कोई प्रभाव प्रेमपर न पड़ने दे। उसे मानना चाहिये कि कर्म की और रुचि की एकता नहीं हो सकती, परंतु प्रीति की एकता मैं कर सकता हूँ यह भावना चित्त शुद्धि का सुन्दर उपाय है। रामजी और लक्ष्मणजी की मान्यतामें भेद था। श्रीराम समुद्रसे रास्ता माँगते हैं, लक्ष्मणजी को यह पसंद नहीं है, परंतु उनके प्रेम में किंचिन्मात्र भी कमी नहीं है। (सन्त-सौरभ)

9

भगवान्‌ हमसे प्रेम करते हैं, यह कैसे मालूम हो ?....जैसे माता अपने बच्चे के लिए तरसती है, वैसे ही भगवान्‌ अपने भक्त के लिए तरसते हैं। बच्चा काना, लूला, बुरी शकलका या अन्धा-कैसा भी हो, माता उससे प्रेम करती है। बच्चा भी यही समझता है कि मेरी माँ है, मुझे उसका प्रेम मिलेगा। भगवान्‌ में तो मातासे भी अनन्तगुना वात्सल्य है। फिर वे भक्तसे प्रेम करें, इसमें तो कहना ही क्या है?

10

जो पतित सूर्य का प्रकाश पाता है, जल जिसकी प्यास बुझाता है, वायु जिसे श्वास लेने देती है, पृथ्वी जिसे आश्रय देती है, आप उसे प्यार नहीं दे सकते?-(जीवन-पथ)

11

आप अपने निकटवर्ती प्रियजनोंसे पूछिये कि आप हमको बहुत प्यारे लगते हैं, लेकिन हमारे पास जो वस्तु है, वह हम आपको नहीं दे सकते, तो आपको तुरन्त उत्तर मिलेगा कि आपका प्यार भाड़ में जाय। केवल प्रियतामात्र से रीझने में प्रभु ही समर्थ हैं। संसारभर की आप खोज कीजिये, आपको एक भी आदमी ऐसा नहीं मिलेगा जो आपको यह कहे कि हम आपको अपना मानते हैं इतने मात्र से आप प्रसन्न हो जाइये।(जीवन पथ-पेज-१२३)

12

क्या आप यह नहीं जानते हैं कि अगर कोई प्रेमी होता है तो उसके प्रति आपका स्वाभाविक आकर्षण होता है। अपने-अपने प्रेमियों के प्रति लोगों का आकर्षण होता है कि नहीं? और जो सभी का प्रेमी हो; विश्व का भी और विश्वनाथ का भी तो उसके प्रति सभी का आकर्षण नहीं होगा? क्या आप और हम इस बात में पराधीन हैं कि हम सभी को प्यारभरी दॄष्टि से देखें,प्यार भरी वाणी से बोलें, प्यार भरे कानों से सुनें।(साधन-त्रिवेणी-पेज-८९)

13

प्रेम प्रदान करना या न करना प्रभु के हाथ की बात है। वे जब चाहें,जिसको चाहें, अपना प्रेम प्रदान करें अथवा न करें इसमें साधक के वश की बात नहीं है, किंतु उनका प्रेम न मिलने से व्याकुलता और बेचैनी तो होनी ही चाहिए। छोटी-से-छॊटी चाह पूरी न होने से मनुष्य दु:खी हो जाता है।फिर जिसको भगवान्‌ के प्रेम की लालसा है और प्रेम मिलता नहीं, वह चैन से कैसे रह सकता है? उसकी वेदना को किसी भी भोग और सद्‌गुणका सुख कैसे शान्त कर सकता है?(सन्त-सौरभ)

प्रार्थना

1

प्रार्थना करने का अधिकार तब होता है, जब कर्ता अपनी सारी शक्ति समाप्त कर दे; क्योंकि शक्ति रहते हुए सच्ची प्रार्थना नहीं होती। प्रार्थना वास्तव में दु:खी हृदय की आवाज है।....जो प्रार्थी अपनी सारी शक्ति समाप्त कर सर्वसमर्थ इष्टदेव से प्रार्थना करता है, उसकी प्रार्थना अवश्य सफल होती है। प्रार्थना की नहीं जाती, बल्कि होती है; क्योंकि जब अभिलाषा मिटा पाते नहीं और उसके पूर्ण करने की शक्ति नहीं होती, तब जो आवाज हृदय से उत्पन्न होती है, वही प्रार्थना होती है। (सन्त-समागम १)

2

यदि मानव-समाज व्यथित हृदय से करुणासागर को पुकारे तो प्रकृति का क्षोभ मिट सकता है और दुष्काल सुकाल में बदल सकता है। पर इस ओर तो आज दृष्टि ही नहीं जाती। जग की सहायता से जग की समस्याओं का सर्वांश में समाधान नहीं होता। करुणासागर जगदाधार को पुकारो और उनके द्वारा दिये हुए बल से क्रियात्मक सेवा करो। (संतपत्रावली २)

3

यदि अपनी ओर से पूरा प्रयास करने पर भी हम सुख के भोग और उसके आकर्षण को छोड़ने में अपने-आपको असमर्थ पाते हैं तो सरल विश्वासपूर्वक दु:खी हृदय से सर्वसमर्थ प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए। दु:ख अवश्य मिट जाएगा। (सन्तवाणी प्रश्नोत्तर)

4

प्रार्थना के सम्बन्ध में जो कुछ कहा जाए, कम है; क्योंकि यह निराशा को आशा में, निर्बलता को बल में और असफलता को सफलता में परिवर्तित कर प्राणी को उसका अभीष्ट प्राप्त कराने में समर्थ है। (मानवता के मूल सिद्धान्त)

5

प्रार्थना शब्दों द्वारा नहीं की जाती। प्रार्थना क मतलब है- अपनी जरुरत की विस्मृति न हो। (संतवाणी ७)

6

जिस प्रकार माँ को शिशु की सभी आवश्यकताओं का ज्ञान है एवं शिशु के बिना कहे ही माँ वह करती है, जो उसे करना चाहिए, उसी प्रकार आनन्दघन भगवान्‌ हमारे बिना कहे ही वह अवश्य करते हैं, जो उन्हें करना चाहिए। परन्तु हम उनकी दी हुई शक्ति का सदुपयोग नहीं करते और निर्बलता मिटाने के लिए बनावटी प्रार्थना करते रहते हैं। (सन्त-समागम २)

7

प्रार्थना ही निर्बल का बल है। प्रार्थी को अवश्य लक्ष्य की प्राप्ति होती है। (संतपत्रावली २)

कामना

1

मेरा अपना अबतक का अनुभव है कि जो हम चाहते हैं, वह न हो, इसी में हमारा हित है। हमने तो जब तक अपने मन की मानी है, तब तक सिवाय पतन के, सिवाय अवनति के हमें तो कुछ परिणाम में नहीं मिला। मैं आपके सामने अपनी अनुभूति निवेदन कर रहा हूँ, और इससे लाभ उठाना चाहते हैं तो अपनी चाही मत करो। प्रभु की चाही होने दो। प्रभु वही चाहते हैं, जो अपने-आप हो रहा है।(संतवाणी-४)

2

यदि कोई यह कहे कि निष्काम होने से तो भौतिक विकास न होगा; कारण कि कामना से प्रेरित होकर ही मानव भौतिक उन्नति में प्रवृत होता है, पर वास्तविकता यह नहीं है। भौतिक विकास प्राप्त परिस्थिति के सदुपयोग अर्थात्‌ वर्तमान कर्तव्य-कर्म से होता है।....भौतिक उन्नति कामनायुक्त प्राणियों की होती है, इसमें लेशमात्र भी वास्तविकता नहीं है।(मूक-सत्संग)

3

किसी भी प्रकार की कामना न रखने वाला ‘राजाओं का राजा’; जो शक्ति प्राप्त है उससे कुछ कम कामना रखने वाला ‘धनी’; शक्ति के समान कामना रखनेवाला ‘मजदूर’; शक्ति से अधिक कामना रखने वाला ‘कंगाल’ है।(संतपत्रावली १)

4

हम सब यह निर्णय कर लें कि आज से सुनने वालों की खुशी के लिए बोलेंगे, खिलाने वाले की खुशी के लिए खाएँगे, मिलने वाले की प्रसन्नता के लिए मिलेंगे, तो बताओ, आपने इसमें कौन-सा तप किया? जो सत्य सामने आया, उसे अपनाया। इस सत्य के अपनाने से आप अचाह हो जायँगे और जगत्‌ के काम आएँगे। (संतवाणी-७)

5

इच्छाएँ कैसे मिटे? आपकी इच्छाएँ अपने सुख को लेकर न उठे, पर-पीड़ा को लेकर उठें। "हे भगवान्! तुमने मुझे आँखें दी है, मैं अन्धे के काम आ जाऊँ। हे भगवान्! तमने मुझे बल दिया है, मैं निर्बल के काम आ जाऊँ।" आप इच्छाओं का रुख बदल दीजिए, इच्छाएँ मिट जावेंगी - (प्रश्नोत्तरी - १७)

6

यदि हमारे मन की बात होती है तो समझना चाहिए कि भगवान्‌ हमें दूर रखना चाहते हैं, और हमारे मन की बात नहीं हुई तो भगवान्‌ हमें अपनाना चाहते हैं।(सन्त-समागम-२)

7

एक बार साधननिष्ठा देवकीजी ने एक बड़ा सुन्दर व्याख्यान दिया। उन्होंने यह कहा कि मैं जो चाहती हूँ सो होता नहीं और जो होता है सो भाता नहीं और जो भाता है वह रहता नहीं। उस व्याख्यानमें एक युवक बैठा हुआ था।वह टप-टप रोने लगा।वह कहने लगा कि दीदीजी ने जीवन का चित्र सामने रख दिया। उसके बाद मुझे बोलना था। तो मैंने कहा कि जब तुम जानती ही हो कि जो मैं चाहती हूँ सो नहीं होता,तो फिर चाहती ही क्यों हो?(सन्त-वाणी भाग-५(क))

8

परमात्मासे यदि कुछ भी माँगेंगे तो आपका सम्बन्ध परमात्मासे तो रहेगा नहीं, जो हमसे माँगेंगे, उससे हो जायगा। (संतवाणी-८-७१) भगवान्‌ इच्छा पूरी नहीं करते, वे तो भक्तको इच्छारहित करते हैं।(सन्तजीवनदर्पण-पेज-८८)

ममता

1

किसी को भला और बुरा मानकर उसकी ममता मिटाना सम्भव नहीं है। ममता उसी की मिट सकती है, जिसको भला अथवा बुरा न मानें। किसी को भला-बुरा समझना उससे सम्बन्ध जोड़ना है। (दर्शन और नीति)

2

ममता सुख लेने का एक उपाय भर है। जिससे जितना अधिक सुख लोगे, उससे ममता तोड़ना उतना ही कठिन होगा।(-सन्तवाणी (प्रश्नोतर))

3

जिस वस्तु के प्रति अपनी ममता रहती है, उसमें अनेक दोष आ जाते हैं। ममता करने योग्य तो केवल वे ही हैं।(-पाथेय)

4

जिस वस्तु से ममता नहीं रहती, वह अनन्त को समर्पित हो जाती है। यह नियम है कि जो वस्तु अनन्त को समर्पित हो जाती है, वह अनन्त की कृपा-शक्ति से स्वत: शुद्ध हो जाती है।(-चित्तशुद्धि)

गुरु

1

सेवकों के गुरु हैं श्री हनुमन्नतलाल जी, विचारकों के गुरु हैं, भगवान् शंकर और प्रेमियों की गुरु हैं श्री राधारानी।(-सन्त-जीवन दर्पण)

2

दुनिया का बड़े-से-बड़े गुरु, बड़े-से-बड़े नेता, बड़े-से-बेड़ा राष्ट्र जो काम नहीं कर सकता आपके साथ, अगर आप चाहें तो अपने साथ कर सकते हैं। (-संतवाणी-४)

3

गुरु की सबसे बड़ी भक्ति यह है कि गुरु मिलना चाहे और शिष्य कहे कि जरुरत नहीं है; क्योंकि जिसने गुरु की बात को अपनाया, उसमें गुरु का अवतरण हो जाता है।(संतवाणी-७)

4

पूजा-प्रार्थना सब परमात्मा के साथ करनेवाली बात है। गुरु परमात्मा का बाप हो सकता है, परमात्मा नहीं। हाँ, गुरुवाक्य ब्रह्मवाक्य हो सकता है। गुरु श्रद्धास्पद हो सकता है, प्रेमास्पद नहीं। व्यक्ति को अगर परमात्मा मानना है तो सबको मानो। गुरु साधनरुप हो सकता है, साध्यरुप नहीं। (संतवाणी-७)

5

अगर बाह्य गुरु के बिना तत्व-साक्षात्कार नहीं होता, तो आप यह बताइये कि सबसे पहले तत्व-साक्षात्कार कैसे हुआ होगा? आखिर गुरु-परम्परा चली होगी कि नहीं? तो जो सबका गुरु होगा, मानना पड़ेगा कि उसका कोई गुरु नहीं होगा। यदि एक व्यक्ति को भी बिना गुरु के तत्व-साक्षात्कार हो सकता है, तो यह विधान तो नहीं हुआ कि बिना गुरु के तत्व-साक्षात्कार नहीं हो सकता।(संतवाणी-६)

विविध

1

भयंकर से भयंकर परिस्थिति आ जाय, तब भी कह दो-"आओ मेरे प्यारे! आओ, आओ, आओ। तुम कोई और नहीं हो। मैं तुम्हें जानता हूँ। तुमने मेरे लिये आवश्यक समझा होगा कि मैं दु:ख के वेश में आऊँ, इसलिये तुम दु:ख के वेश में आये हो। स्वागतम्!वैलकम्! आओ आओ चले आओ!" आप देखेंगे कि वह प्रतिकूलता आपके लिये इतनी उपयोगी सिद्ध होगी कि जिस पर अनेकों अनुकूलतायें निछावर की जा सकती है।(प्रेरणा-पथ-पेज-१०१)

2

बार-बार उठे-वह कौन सा क्षण होगा! वह कौनसा काल होगा! जब मैं अपने सत्यको जानूँगा अथवा अपने सत्य में निवास करुँगा। इस प्रकार की जो लालसा है,वह धीरे-धीरे असत् की कामनाओं की जड़ काट देगी।(संत-वाणी-पेज-२५४)

3

भगवान् से कह दो-"हे प्रेमास्पद! भोग और मोक्ष की भूख मिटा दो, प्रियता की भूख जगा दो, अपने निर्मित जीवन को अपने लिये उपयोगी बना लो"। वे व्यथित हॄदय की पुकार शीघ्र सुनते हैं, यह निर्विवाद सत्य है। यद्दपि वे स्वत: सब कुछ जानते हैं, फिर भी व्यथित हृदय से पुकारती रहो। जैसे रखें वैसे रहो, पर अनेक रुपों में उन्हीं को देखते हुए अनेक प्रकार से उन्हीं को लाड़ लड़ाओ।वे सदैव तुम्हारे और तुम उनकी हो। (पाथेय-पेज-४२)

4

जिस समय अपने दोष का दर्षन हो जाय, समझ लो, तुम जैसा विचारशील कोई नहीं। और जिस समय पर-दोष-दर्षन हो, उस समय समझ लो कि हमारे जैसा बेसमझ कोई नहीं। बे-समझ की सबसे बड़ी पहिचान है कि जो पराये दोष का पण्डित हो। और भैया, विचारशील की कसौटी है, कि जो अपने दोष का ज्ञाता हो। (प्रेरणा-पथ-पेज-९९)

5

हम लोग अपराध करनेसे नहीं हारते हैं और जब उसके परिणाममें डूबने लगते हैं तब अपना ही विकार अपनेको आगे नहीं बढ़ने देता है। लेकिन उबारनेवाले कभी नहीं थकते। कोई बात नहीं। प्यार करनेवाले माता-पिता हमारे मौजूद हैं। उन्हींके बच्चे तो हम हैं।सजाके, सँवारके, सुन्दर बनाके उन्होंने दुनियामें भेजा, कीचडमें हम गिर गये। कपड़े गन्दे हो गए। तो भी वे करुणामयी माँ, हम गिरे-पड़े, रोते हुए बच्चेको उठानेमें कभी पीछे नहीं हटते। (जीवन विवेचन-भाग-१ख-पेज-१०)

6

अगर आपको निकम्मा ईश्वर प्यारा लगता हो, वह निष्ठुर भी हो, निकम्मा भी हो, हमें न भी चाहता हो, तब भी अगर आप उसे अपना कह सकें, तो स्मृति जगेगी। आज मालूम है, क्या है? एक सज्जन बीमार हुए। उनकी स्त्री ने कहीं सुन लिया कि भगवान् सबकी रक्षा करते हैं। बस खूब पूजा हुई, पति अच्छे हो गये। दोबारा बीमार हुए, खूब पूजा हुई, मर गए।ठाकुरजी को उठाकर फेंक दिया।(जीवन पथ-पेज-६४)

7

दोष को देखना है, अपने में उसकी स्थापना नहीं करना है, अपितु दोष देखने के पश्चात् तुरन्त निर्दोषता की स्थापना कर अचिन्त हो जाना है और दोष को पुन: न दोहराने का दृढ़ संकल्प करना है। उसके पश्चात् कोई कहे कि तुम दोषी हो, तो प्रसन्नचित्त होकर कह दो कि अब नहीं हूँ, पहले था।अर्थात भूतकाल के दोषों को वर्तमान में मत देखो।(मानव की मांग-पेज-१३२)

8

यदि प्राणी व्यथित हृदय से उन्हें पुकारे तो उसे सबकुछ मिल सकता है। इस दृष्टि से अपने को निर्दोष बनाने में प्रार्थना का मुख्य स्थान है। वह प्रार्थना सजीव तभी होती है, जब की हुई भूल को न दुहरा कर प्रायश्चितपूर्वक प्रार्थना की जाय।(मानव की मांग-पेज-२७३)

9

जो तुम्हारे सम्बन्ध में तुमसे ज्यादा जानते हैं, क्या उनसे भी कुछ कहना है? जिस प्रकार माँको शिशुकी सभी आवश्यकताओंका ज्ञान है एवं शिशुके बिना कहे ही माँ वह करती है जो उसे करना चाहिये, उसी प्रकार आनन्दघन परमात्मा हमारे बिना कहे ही वह अवश्य करते हैं, जो उन्हें करना चाहिये। परन्तु हम उनकी दी हुई शक्तिका सदुपयोग नहीं करते और निर्बलता मिटानेके लिये बनावटी प्रार्थना करते रहते हैं।

10

सेवकों के गुरु हैं श्री हनुमन्नतलाल जी, विचारकों के गुरु हैं, भगवान् शंकर और प्रेमियों की गुरु हैं श्री राधारानी।(-सन्त-जीवन दर्पण)

11

चरित्र को सुरक्षित रखने के लिये सब कुछ न्योछावर किया जा सकता है,किन्तु चरित्र किसी के बदले मे नहीं दिया जा सकता । अतः चरित्र का महत्व शरीरादि सभी वस्तुओं से अधिक है।(मानव कि मांग-पेज-२७१)

12

दोष का होना उतनी भूल नहीं है, जितनी भूल किए हुए दोष को स्वीकार न करना और दोष-जनित प्रवृति से घोर दु:खी न होना है।( चित-शुद्धिचित-शुद्धि-पेज-९७)

13

सांसारिक व्यक्तियों का विश्वास बड़ा भयानक सिद्ध हुआ है। इन पर विश्वास करके मनुष्य बहुत धोखे में आ जाता है। अधिक क्या,साधक को तो अपने शरीर, मन और बुद्धि पर भी विश्वास नहीं करना चाहिये। विश्वास के योग्य एकमात्र ईश्वर ही है। (-संत-सौरभ)

14

विघ्नों से डरो मत। हर विघ्न अपने उन्नति का साधन है। संसार में उन लोगों की उन्नति हुई है जिन लोगों ने हर कदम पर बाधाओं का सामना किया है। बाधा स्वयं को जागृत कर, भूले मिटा कर, छिपी शक्ति का विकास करती है। पर जो उनसे डरते है, उन्हें बाँध लेते है।

15

एकबार मैं बहुत परेशान थी, तो स्वामीजी महाराज के भीतर इतने जोर का उत्साह हुआ कि एकदम कहने लगे -“ईश्वरवाद को तुम ऐसी थोथी चीज समझती हो? अरे देवकी जी ! अगर ईश्वरवाद ऐसा थोथा तत्व होता, तो मानव समाज से कबका उठ गया होता।भगवान्‌को तुमने क्या समझा है? ऐसा नहीं होता है लाली। मैं सच्ची बात कहता हूँ तुमसे,कि अधीर साधक की प्रार्थना के वाक्य पूरे होते हैं पीछे,और समर्थ प्रभु उसकी बाँह पकड़ते हैं पहिले"।(जीवन-विवेचन)

16

अगर आपको उनके बिना अनुकूलता प्रिय है, तो वह उसी प्रकारकी है कि एक सुन्दर कमरा सजा है और आप दोस्तके बिना हैं; एक सुन्दर स्त्री श्रृंगार करे और पतिसे वंचित रहे, या शरीर आत्मारहित हो। आस्तिकवादका न होना जीवनमें अकेले पड़े रहनेके समान है।(सन्तसमागम-२-पेज-८५)

17

जो दिनरात अपने अहम्‌ के ही महत्वको बढ़ाता रहता है, दुनिया उसका मुँह देखना पसन्द नहीं करती ईमानदारीसे।(संतवाणी-७-४९)

18

‘सबहिं नचावत राम गोसाईं’। यह उस भक्तके हृदयकी पुकार है कि जिसका अहंभाव मिट गया हो।(संतपत्रावली-१-पेज-१३५)

19

सब कामों के अंत में सोते समय और सोकर उठते समय एवं जो कोई काम करो उसके अंत में भजन करना चाहिए | जो मनुष्य हरेक काम के अंत में कम से कम एक बार भी निश्चित रूप से भगवान को याद कर लेता है उसको मरते समय भगवान जरूर याद आयेंगे |

20

जिस प्रकार सोये हुए को जगाया जा सकता है, पर जो जागते हुए सो रहा है उसे कोई नहीं जगा सकता; उसी प्रकार जो अपनी जानकारी का स्वयं आदर नहीं करता और प्राप्त बल का सदुपयोग नहीं करता, उसकी कोई भी सहायता नहीं कर सकता। क्योंकि प्राकृतिक नियम के अनुसार विवेक के अनादर से अविवेक की और बल के दरुपयोग से निर्बलता की ही वृद्धि होती है। ज्यों-ज्यों प्राणी विवेक का अनादर तथा बल का दुरूपयोग करता जाता है, त्यों-त्यों विवेक में धुंधलापन और निर्बलता उत्तरोतर   बढती ही रहती है। यहाँ तक की विवेकयुक्त जीवन छिन्न-भिन्न  हो जाता है और प्राणी साधन करने के योग्य नहीं रहता।(जीवन-दर्शन भाग-२)


॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you lovable! ॥

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