मैं सबके साथ हमेशा रहूँगा। जितने भी शरणागत हैं, उन सबसे मैं अभिन्न हूँ; जितने भी ममता-रहित हैं, उन सबके साथ हूँ। यह मत समझना कि मैं नहीं हूँ, मैं सर्वत्र सबके साथ मौजूद हूँ।-स्वामी श्रीशरणानन्दजी

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ ॥ मेरे नाथ ! ॥ ॥ हरि: शरणम्‌ !॥
॥ God's Refuge ! ॥ ॥ My Lord ! ॥ ॥ God's Refuge ! ॥

1. Dr. Rajendra Prasad (India's first President)

I have had the privilege of meeting Swamiji on one or two occasions, and was deeply impressed by the Way in which he dealt with most complicated problems in a simple, intelligible way. I am therefore very happy to receive the two volumes in which you have collected some of his discourses.

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2. आज के युग के महान विचारक श्री जे.कृष्णमूर्ति

दिल्ली में श्री कृष्णमूर्ति जी जहाँ ठहरे थे वहाँ श्री स्वामीजी महाराज पहुँचे । श्री कृष्णमूर्ति जी ने अत्यन्त आदर और स्नेह के साथ स्वामीजी का स्वागत किया तथा अपनी विशेष कुर्सी पर ही स्वामीजी को बैठाया स्वयं एक साधारण सी कुर्सी पर बैठ गए । दुभाषिए के माध्यम से बात-चीत आरम्भ हुई ।

श्री स्वामीजी महाराज ने कहा, " आप प्रत्येक बात का निषेध करते जाते है तो क्या आप अभाव को स्वीकार करते है ? "

श्री कृष्णमूर्ति जी ने तुरन्त कहा, " नहीं, नहीं लाइफ है लाइफ है ।" इस पर श्री महाराज जी ने कहा, " जिसे आप लाइफ (जीवन) कहते हैं उसे यदि मैं परमात्मा कहूँ तो आपको कोई आपत्ति है ? " सुनकर श्री कृष्णमूर्ति जी मौन हो गए उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। बाद में इस भेंट की चर्चा करते हुए श्री स्वामीजी महाराज ने बताया कि कृष्णमूर्ति जी ने जो अन्तिम पुस्तक लिखी है उसमें कहा है कि, प्रेम की जागृति में ही मानव-जीवन की पूर्णता है । तो भाई, प्रेम तो तभी होगा जब कोई प्रेमास्पद हो । इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने परमात्माकी सत्ताको ही स्वीकार किया है ।

- सन्त-जीवन-दर्पण पुस्तक से (page 69)

आज के युग में बड़े विचारक, जो परमात्मा और आत्मा की चर्चा ही नहीं करते, बल्कि निषेधात्मक बात करते है वे है - जे. कृष्ण मूर्ति । उन्होंने जो आखिरी किताब लिखी है, उसमे लिखा है कि - " प्रेम की जागृति ही मानव के विकास की चरम सीमा है ।" यानी प्रेम प्राप्ति मानव जीवन की चरम सीमा है । तो भैया ! प्रेम प्राप्ति तो तभी न होगी, जब कोई प्रेमास्पद होगा ? प्रेम-प्राप्ति बिना प्रेमास्पद के हो जायगी क्या ? श्रोता - नहीं ।

तो इस तरह से उन्हों ने भी अपनी थीसिस में, अपनी खोज में परमात्मा की ओर संकेत किया है ।

- सन्त-वाणी भाग-३ (page 145), Cassette No. 11B

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3. Dr. S Radhakrishnan (Vice President of India

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4. स्वामी श्री अखण्डानन्द जी सरस्वती

हमने स्वयं देखा और अपने कानों से सुना कि कोई कैसा भी प्रश्न करे, वे तत्काल उस प्रश्न का निरसन कर देते थे | उनकी सूझ-बूझ इतनी प्रखर थी के वे प्रश्न के शब्द सुनते ही समझ जाते थे कि प्रश्नकर्ता किस नासमझी या भूल के कारण यह प्रश्न कर रहा है | तत्क्षण वे उस पर चोट करते और प्रश्न ही कट जाया करता था | किसी का तर्क-वितर्क उनके समक्ष टिक नहीं पाता था | इसके साथ ही साथ उनका ह्रदय इतना भावपूर्ण एवं कोमल था कि भगवच्चर्चा करते-करते वे भावमग्न हो जाते और नेत्रों से अश्रुधारा का प्रवाह एवं कण्ठ गद्गद हो जाया करता था | उनकी वाणी का स्वर ही बदल जाता था |

एक बार स्वामी शरणानन्द जी महाराज सेठ श्री जय दयाल जी के सत्संग में स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) आये | उनकी भाषा विलक्षण थी | उसको ग्रहण करने के लिए पहले-पहल कई दिन तक सुनना पड़ता था | स्वामी श्री रामसुखदास जी के साथ उनका विचार-विमर्श होता था | वे जब नये-नये शब्दों का प्रयोग करते तो पहले कुछ अदभुत सा लगता, बादमें विचार करने पर प्राचीन शास्त्रों के साथ उसकी संगति लग जाया करती थी |

श्री रामसुखदास जी ने मुझे बताया कि स्वामी शरणानन्द जी का चिन्तन बहुत ही गम्भीर एवं सूक्ष्म है | प्रत्येक बात को वे स्वयं चिन्तन के द्वारा अपनी भाषा में अभिव्यक्ति देते है |

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॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you lovable! ॥

For any suggestions or problems please contact us: feedback@swamisharnanandji.org