मैं सबके साथ हमेशा रहूँगा। जितने भी शरणागत हैं, उन सबसे मैं अभिन्न हूँ; जितने भी ममता-रहित हैं, उन सबके साथ हूँ। यह मत समझना कि मैं नहीं हूँ, मैं सर्वत्र सबके साथ मौजूद हूँ।-स्वामी श्रीशरणानन्दजी

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ ॥ मेरे नाथ ! ॥ ॥ हरि: शरणम्‌ !॥
॥ God's Refuge ! ॥ ॥ My Lord ! ॥ ॥ God's Refuge ! ॥

स्वामीजी के विषय में (प्रबोधनी) सन्त जीवन दर्पण पुस्तक से Pdf Format

महाप्रयाण के पूर्व स्वामी श्रीशरणानन्दजी के उद्गार -1

महाप्रयाण के पूर्व स्वामी श्रीशरणानन्दजी के उद्गार -2

महाप्रयाण के पूर्व स्वामी श्रीशरणानन्दजी के उद्गार -3

स्वामीजी का महाप्रयाण संदेश देवकीमाँ के स्वर में

स्वामीजी के विषय में (प्रबोधनी) देवकीमाँ के स्वर में

जीवन के मार्मिक प्रसंग

1

बालक (श्री महाराजजी) जब तीन वर्ष का था, तो एक दिन किसी रमते योगी ने उसके द्वार पर अलख जगायी, और बालक जब माता के हाथ से आटे की कटोरी छीन कर ‘हूँ दूँगों भिच्छा’-कहता हुआ योगी की ओर दौड़ा, तो योगी बालक की बड़ी-बड़ी आँखों से आकर्षित होकर उसके ललाट को एकटक निहारने लगा । भिक्षा लेना भूलकर बालक को उस तरह घूरते देख माँ के मन में संदेह तथा भय-मिश्रित भाव उत्पन्न हुआ और आगे बढ़कर उसने बालक को अपनी बाँहों के घेरे में लेते हुए योगी की दृष्टि से हटा लिया तथा हाथ से आटे की कटोरी लेकर योगी की झोली में भिक्षा डाल दी । ‘तेरे लल्ला को हाथ देखना चाहूँ हूँ, मैया ! जु कहै तो देख लऊँ ।’ योगी ने माता से आज्ञा माँगी और सकुचाती हुई माता ने बच्चे की दाहिनी हथेली फैलाते हुए योगी के आगे कर दी । माता गौर वर्ण की थी और बच्चा साँवले रंग का । तभी योगी के मुँह से निकला, ‘तौ जि बात है ! जसोदा ने कारो जायो है !’ बात चाहे जिस उद्देश्य से कही गयी हो, माता ने उसे व्यंगात्मक भावमें ही लिया । इधर योगी बच्चे की मुलायम और गुलगुली हथेली को अपने अँगूठे से इधर-उधर खींचता हुआ देख-देखकर मुस्करा रहा था और उधर माता बालक का भविष्य जान लेने को उतावली हो रही थी । माता को बहुत अच्छी तो नहीं लगी, फिर झुककर उसने योगी को दण्डवत्‌ प्रणाम किया और विनयपूर्वक बोली-

"कोऊ अच्छौ वरदान देते जैयो महाराज, मेरे छोरा को ।"
तो योगी यह कहता हुआ लम्बे डग भरने लगा कि-


"तेरो लाला कै तो बड़ो राजा होगो, नहीं तो सिद्ध जोगी तो होगो ही, या मैं तो कोऊ संदेह नाय । विधि के विधान कूँ को टार सक्यो है, मैया? रामऊँ को वन जानो पड़यो हतो, मेरी-तेरी तो बात ही कहा है।" लम्बे डग भरता हुआ योगी गाता जा रहा था-

"मुनि वशिष्ठ से पंडित ज्ञानी सोधि कै लगन धरी ।
सीता हरण मरण दशरथ को वन में विपति परी ।"


2


बचपन की बात है । प्रीति के लिए ही जैसे बना हुआ हृदय, मैत्री-भाव छलकता रहता । तेज हवा चलती, बगीचों में पके आम टपकते। मुहल्ले के बच्चों के साथ यह अनुरागी-हृदय बालक भी आम खाने के लिए दौड़ जाता । आम उठाया, एक बार चूसा, रस अगर मीठा लगा तो झटपट दोस्त की याद आ गयी-"अरे, यह तो बढ़िया आम उसको खिलाऊँगा ।" देखा आपने ! आम खाने का सुख प्यारे मित्र को आम खिलाने के रस में बदल गया ! कैसी अद्भुत रचना है ! कैसा प्रेमी हृदय है ! मानववेता कहते हैं कि बाल्यकाल में व्यक्ति आत्म-केंद्रित होता है, अपना ही सुख पसंद करता है । आगे चलकर सामाजिकता के प्रभाव से सुख बाँटना सीखता है । यह लक्षण उस बालक पर लागू नहीं होता, जो भोग और मोक्ष- सब कुछ उस अनन्त पर न्यौछावर करके उसको आनन्दित करने वाला, उसका नित्य सखा होने जा रहा है । परमात्मा का अभिन्न मित्र होकर उसने डंडे की चोट प्रेम-पथ के साधकों को सुनाया कि परमात्मा को रस देने के लिए उसको प्यार करो।

3


‘शरीर विश्व के काम आ जाये,’ इस सत्य को सिद्धान्त रुप में प्रस्तुत व प्रतिपादित किया गया बहुत पीछे, परन्तु बीज रुप में यह सर्वहितकारी भाव उनमें विद्यमान था बचपन से ही, बचपन से ही इसके लक्षण प्रकट होने लगे थे उनमें । उन्हीं के श्रीमुख से हमने सुना है, "मुझे दूसरों के काम आने का बचपन में बड़ा शौक रहा है । जब चिट्ठीरसा गाँव में आता तो मैं उसके पीछे-पीछे डोलता था, क्योंकि गाँव में अधिक लोग निरक्षर भट्टाचार्य थे। मैं ही थोड़ा-सा पढ़ा-लिखा था। जब लोग कहते कि लल्ला, जरा पढ़कर सुना देना, तो बड़ा मजा आता लल्ला को ।" कैसी लगन है ! कोई मदद की आवश्यकता अनुभव करेगा, इसलिए स्वयं पहले ही वहाँ उपस्थित हो जाने में, ऐसा मजा लेने में, कितना सयानापन है । दूसरों के काम आने वाली लगन जो सीमित सामर्थ्य के बालक में अंकुरित हुई थी वह त्रिगुणातीत ब्रहमनिष्ठ संत हो जाने के बाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची और निकटवर्तियों ने शरीर-नाश के अंतिम क्षणों में सर्वात्म-भाव से भावित उस महामानव को अपने परम सुहॄद्‌ से सबका कल्याण करने के लिए कहते हुए सुना ।


4


‘योग: कर्मसु कौशलम्‌’, यह लक्षण भी बाल्यकाल में ही प्रकट होने लगा था । श्री महाराजजी ने स्वयं ही सुनाया था कि -"मुझे पढ़ने जाने का बड़ा शौक था । पिता के घर से कुछ दूर दूसरे गाँव में पढ़ने जाता था और लालटेन की रोशनी में चलने का भी बहुत शौक था। अत: स्कूल से आते समय खेल कूद में, जान-बूझकर थोड़ी देर कर देता और लालटेन जलाकर हाथ में लेकर थोड़ा अँधेरा होने पर घर आता । एक दिन घर पहुँचने पर पता चला कि लालटेन की ढिबरी रास्ते में कहीं गिर गई है। इससे मुझे बड़ी तकलीफ हुई । दूसरे दिन रविवार था । स्कूल नहीं जाना था । इस कारण उस दिन भी बड़ी बेचैनी रही । मेरे द्वारा ऐसी भूल क्यों हुई ? भूल की तकलीफ मिटाने के लिए लालटेन की ढिबरी खोजना था । सारा दिन, सारी रात बेचैन रहने के बाद सोमवार के दिन जब घर से स्कूल के लिए चला तो अपने दरवाजे से ही पूरे रास्ते भर आँखें गड़ा-गड़ा कर लालटेन की ढिबरी खोजता हुआ गया। छोटी-सी चीज थी, दो दिन बीत गये थे। रास्ते में पड़ी हुई चीज किसी ने उठा ली होगी । मिलने की आशा तो बहुत कम थी, परन्तु गलती हो जाने की तकलीफ और ढिबरी को खोजने का चाव बहुत प्रबल था । चलते-चलते स्कूल पहुँचने से पहले ढिबरी मिल गयी और मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई ।" आप सोचिये, लालटेन की ढिबरी जैसी मामूली चीज का खो जाना कोई खास बात नहीं थी । अच्छे सम्पन्न परिवार का इकलौता लड़का, एक लालटेन बिना ढिबरी की हो गयी तो माता-पिता बालक के लिए दो-चार नयी लालटेनें खरीद सकते थे, परन्तु बालक को अपने कार्यकुशलता में कमी का बड़ा भारी दु:ख था । संत हो जाने पर उसी जीवन से यह सत्य उद्भाषित हुआ कि यदि एक गिलास जल सही ढंग से पिलाना नहीं आता है तो ध्यान करना नहीं आयेगा। छोटा-से-छोटा काम करने में भी जो असावधानी करता है वह करने के राग से मुक्त नहीं हो सकता । राग-रहित हुए बिना योगवित्‌ होना संभव नहीं है । उनके प्रेमी मित्र इस बात को खूब अच्छी तरह जानते हैं कि आँखों से देखकर उतनी अच्छी तरह वस्तुओं को हम नहीं सँभाल सकते जितनी अच्छी तरह श्री महाराजजी बिना देखे सँभालते थे ।


5


अद्भुत प्रतिभा-सम्पन्न बालक की आँखें बड़ी गजब की थीं। एक बार स्कूल इन्सपैक्टर आया ! वर्ग-कक्ष में बच्चों से बातें करना लगा । परन्तु रह-रहकर उसकी दृष्टि इस बालक पर अटक जाती थी । आखिर उसके मुँह से निकल ही गया-‘इस बच्चे की आँखें गजब ढाती हैं ।’ उन गजब ढाने वाली आँखों ने बालक का साथ बचपन में ही छोड़ दिया । बालक अत्यन्त दु:खी हो गया । पढ़-लिखकर वकील होने की उसकी कल्पना बिखर गई । अरमानों को गहरी ठेस लगी । सारा परिवार दु:खी हो गया । "अपने दु:ख से मैं दु:खी होता था और मुझे रोता हुआ देखकर माता-पिता और बहनें सब रोने लगतीं। उनको रोते हुए सुनकर मैं और अधिक दु:खी होता--मैं यहाँ तक सोचना लग जाता--हाय ! मेरा जन्म लेना कितने लोगों के लिये दु:खदायी हो गया है । मेरा जन्म न होता तो दु:ख का यह चक्र न चलता ।"


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दृष्टि-हीन हो जाने को अपनी दशा पर स्वयं बालक को इतना दु:ख हुआ था कि माता-पिता घबरा उठे । बच्चा बाँस की छड़ी टेकता और टटोल-टटोल कर चलता । सुबह से ही निकल जाता और आबादी से बाहर जाकर अपना समय गुजार देता-- जैसे, अब वह घर का सदस्य ही नहीं रह गया था । इसी तरह जाड़ों के एक दिन जब वह घर लौटा तो उसके बदन का गर्म कुरता गायब था । फिर एक दिन बदन पर लिपटी हुई लोई भी नदारत थी। बहुत पूछ्ने पर उसने केवल इतना बताया कि किसी रमैया को सर्दी में ठिठुरते सुनकर उसने लोई उसे दे दी थी, क्योंकि ‘उसकी जरुरत मुझसे अधिक थी ।’


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दस-ग्यारह साल के बालक में यह प्रश्न पैदा हो गया था कि "ऐसा भी क्या कोई सुख होता है जिसमें दु:ख न शामिल हो?" एक दिन पिताजी किसी से बातें कर रहे थे। बातचीत के सिलसिले में उन्होंने कहा कि "ऐसा सुख साधुओं को होता है जिसमें दु:ख नहीं रहता।" होनहार, मेघावी सजग बालक को जीवन की राह मिल गई । उसने निश्चय कर लिया, "आँखों के चले जाने से पढ़ना-लिखना संभव नहीं, और सब दरवाजे तो मेरे लिये बंद हो गये, मैं और कुछ नहीं कर सकता, परन्तु साधु तो हो सकता हूँ।" उसी बालक ने साधु होकर दु:ख-रहित जीवन का आनन्द स्वयं पाया । घोर पराधीनता से उच्चतम जीवन की यात्रा आरम्भ करने वाला परम स्वाधीन हो गया। सर्वात्म-भाव से भावित हृदय उमड़ पड़ा और आज आप उनके सिद्धान्तों एवं साधन-प्राणालियों में प्रत्यक्ष उनके जीवन की इस व्यग्रता को अनुभव कर सकते हैं कि उन्होंने असमर्थ से असमर्थ को भी स्वाधीनतापूर्वक स्वाधीनता के साम्राज्य में पहुँचाने का मार्ग किस प्रकार प्रशस्त किया ।


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दिल में धुन लगी है कि साधु कैसे हो जाऊँ । आँखों की ज्योति नष्ट हो जाने से चेहरा कैसा दिखता होगा, इस दु:ख के मारे घर से बाहर नहीं जाता था । साधु होने की बात सुनना भी माता-पिता सहन नहीं कर सकते थे। साधुओं से मिलने-जुलने के लिये कैसे जाऊँ ? कहाँ जाऊँ? कौन ले जाय? बड़ी बेबसी थी । फिर भी, दूसरों की दया का पात्र होकर जीने की बात सोचना भी बालक सह नहीं सकता था । मिलने-जुलने वाले, सगे-सम्बन्धी, जिस किसी से बातचीत होती, केवल सत्संग की ही चर्चा होती, क्योंकि जीवन में एक ही धुन रह गई थी--साधु कैसे बनूं? एक दिन एक संत आये। दरवाजे पर, चौकी पर उनका आसन लगा । पास ही जमीन पर दु:खी बालक चौकी पकड़कर बैठा था । हित-चिंतकों ने संत को दु:खी बालक का दु:ख सुना दिया । संत ने कहा-

"भैया !" राम-राम कहा करो।" बालक ने कहा-"मेरा राम-नाम में विश्वास नहीं है।" संत ने कहा, "कोई बात नहीं। ईश्वर को तो मानते हो?" बालक ने कहा, "हाँ ! ईश्वर को मानता हूँ।" इस पर संत ने कहा "अच्छी बात है,ईश्वर के शरणागत हो जाओ।" संत ने कहा, बालक ने सुना । संत की वाणी जादू का काम कर गई । संत होने के बाद अनेक अवसरों पर श्री मुख से ऐसा कहते सुना गया है--"प्रभु के शरणागत होने की बात जीवन में ऐसी लग गई कि जब से सुना, प्रत्येक क्षण शरण्य से मिलने की धुन तीव्र होती चली गई। रह-रहकर हृदय में हुलास उठती रहती--शरण्य से कैसे मिलूँ?" सत्य की स्वीकृति से साधना की अभिव्यक्ति होती है--जीवन का यह सत्य बालक में प्रत्यक्ष हुआ । जप,ध्यान,स्मरण कुछ करना नहीं पड़ा; स्वत: होने लगा।

9


बालक का हृदय प्रेमी तो था ही। अन्धे हो जाने से प्रिय कुटुम्बों-जनों का स्नेह इस बालक के प्रति अधिकाधिक उमड़ने लगता । एक दिन की बात है कि चचेरे भाई, उनकी पत्नी इस बालक के साथ एक ही बिस्तर पर लेटे-लेटे प्यार की बातें कर रहे थे । भाभीजी को देवर के साधु होने की बात याद आ गई । उन्होंने प्रेमभरे गद्गद्‌ कण्ठ से कहा कि "आप साधु हो जायेंगे, तो इस प्यार को कौन निभाएगा?" बालक ने सुना । ज्ञान का प्रकाश, असाधारण बुद्धि में बिजली की तरह कौंध गया । उसने उत्तर दिया--"हम लोग यहाँ लेटे-लेटे प्रेमभरी बातें कर रहे हैं, बड़ा अच्छा लग रहा है । यह अच्छा लगना कब तक रहेगा?" अभी थोड़ी देर में हमें नींद सतायेगी और हम सब अलग-अलग होकर सो जायेंगे, फिर यह अच्छी लगने वाली परिस्थिति कहाँ रहेगी?" भाई-भाभी से उत्तर देते नहीं बना । बालक के जीवन में यह सत्य प्रकट हो गया कि अच्छी लगने वाली परिस्थिति रहती नहीं है। उसका आश्रय लेना असत्य है ।


10


संत की वाणी ने मंत्र का कार्य तो कर ही दिया था । जीवनी में साधुता का विकास आरम्भ हो गया था, परन्तु संन्यास लेना बाकी था । राह दिखाने वाले संत आवश्यकतानुसार समय-समय पर आते रहते थे । संन्यासी होने की उत्सुकता को सुनकर उन्होंने आदेश दिया, "माता-पिता के जीवन-काल में तुम उन्हें मत छोड़ो । धीरज रखो, जो तुम्हें छोड़ता जाय, उसे तुम छोड़ते जाओ ।" गुरु के आदेश में अविचल निष्ठा थी । कुछ ही दिनों के भीतर मोह का घेरा डालने वाले कुटुम्बी-जन एक-एक कर दिवंगत होते गए, संन्यास लेने के लिए उत्सुक किशोर सबसे नाता तोड़ता गया । अब एक विकट परिस्थिति सामने आई । परपीड़ा से द्रवित किशोर में एक चिन्तन आरम्भ हुआ--"अम्मा नहीं रहेंगी तो पिताजी दु:खी रहेंगे । पिताजी नहीं रहेंगे तो अम्मा रोयेंगी । मैं अंधा बालक कुछ कर नहीं सकता । अम्मा का दु:ख मुझसे कैसे देखा जायेगा? कितना अच्छा होती कि ये दोनों एक साथ चले जाते ।" और वही हुआ । माता-पिता दोनों का देहान्त २-३ घंटों के आगे-पीछे हो गया ! कैसे हो गया, किसने किया- कौन कहे !


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अब तक १८-१९ वर्ष की उम्र हो गई थी । बड़ी उत्सुकता से गुरु-आगमन की प्रतीक्षा हो रही थी । नाते-रिश्ते, अड़ौसी-पड़ौसी, वृद्ध एवं समवयस्क लोगों की ओर से तरह-तरह के सुझाव आने लगे--सम्पति काफी है, बैंक में जमा कर दो और फिर दरवाजे पर बैठकर चैन से राम-भजन करो । प्रस्ताव सुनकर युवक तिलमिला उठता । बिचारे मोह में पड़े-सने लोग समझ नहीं पाते थे कि जिसने सर्व-सामर्थ्यवान की शरण ली है वह भला संग्रहित सम्पति के सहारे कैसे बैठ सकता है । उन्हें बड़ा आश्चर्य होता, जब वे युवक के मुँह से ध्रुव-निश्चय की दृढ़ता के साथ यह सुनते--"तुम लोग मुझे सम्पति के अधीन रखना चाहते हो, मैं ऐसा नहीं करुँगा ।" भीतर से संन्यास तो सिद्ध हो ही गया था, अब बाहर से संस्कार पूरे करने के दिन आ गये । अन्य संतों-भक्तों की मंडली लेकर सद्गुरुदेव एक दिन पधारे और आदेश दिया, "अब समय आ गया है--घर के दरवाजे सब खोल दो--गाँव के लोग जो चाहें सब उठा ले जायें--तुम मेरे साथ चलो ।" ऐसा ही हुआ । शरण्य से मिलने की लगन ने, संन्यासी होने की तीव्र अभिलाषा ने, लोभ-मोह का अन्त पहले ही कर दिया था । एक क्षण की देर नहीं लगी । गुरु ने जैसा कहा, शिष्य ने वैसा ही किया । निकटवर्ती जनों में स्नेह का भाव उमड़-उमड़ कर आँखों से बहने लगा । युवक ने प्रेम-पूर्वक सबका समाधान किया और गुरु के पीछे चल दिया । उस समय से अन्त तक संन्यास-धर्म का बड़ी दृढ़ता के साथ स्वामीजी ने पालन किया । अन्धे होने के कारण कभी भी संन्यास-धर्म के पालन में कोई कमी नहीं आने दी । संन्यास देने वाले गुरु ने चलते समय कह दिया, ‘बेटा ! जब तुम आजाद हो जाओगे, तो सारी प्रकृति तुम्हारी सेवा के लिए लालायित रहेगी ।’ चराचर जगत तुम्हारी आवश्यकता-पूर्ति के लिए तत्पर रहेगा । वृक्ष तुम्हें फल-फूल देंगे और खूँखार शेर तुम्हें गोद में लेकर तुम्हारी रक्षा करेंगे । "जीते जी मर जाय, अमर हो जावे, दिल देवे सो दिलबर को पावे" स्वामीजी ने गुरुवाणी को सर्वांश में धारण किया और उसे जीवन में शत-प्रतिशत फलित होते देखा ।


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गुरु के पास बैठे-बैठे एक दिन तेजोमय युवक संन्यासी के मन में उपनिषद्‌ पढ़ने का संकल्प उठा । सद्गुरुदेव ने बिना पूछे ही उत्तर दिया-‘ठहरी हुई बुद्धि में सब वेद-शास्त्र, उपनिषदों का ज्ञान स्वत: प्रकट होता है । पाठशाला है एकान्त और पाठ है मौन ।’ प्रश्न का उत्तर मिल गया । संत ने जो कहा, स्वामीजी ने उसे किया और वे प्रज्ञाचक्षु हो गये। ‘मैं,‘यह’ और ‘वह’ का प्रत्यक्ष बोध हो गया । फिर तो यह परिणाम हुआ कि उस बेपढ़े-लिखे की बात सुनकर बड़े-बड़े विद्वद्वरेण्य भी चकित होने लगे ।


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रात्रि का समय है। गाँव के बाहर खेत की मेंड़ पर विरही साधु रात्रि-जागरण कर रहा है । रात्रि के निविड़ अंधकार में आस-पास से, दूर-दूर से खेत रखने वालों की आवाज सुनाई देती है । विरही साधु में प्रिय-मिलन की लौ और तेज होती है--‘ये खेत रखाने वाले मुट्ठी भर अन्न के लिए सारी रात जगते हैं । मैं शरण्य से मिलना चाहता हूँ और सोऊँ ?" विरह की लहर तीव्र हो जाती है । सवेरा होने का आभास पाकर ही विरही संन्यासी नित्य-कर्म के लिए उठ बैठता है ।


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एक परिचित गृहस्थ के यहाँ आज बड़ी भीड़-भाड़ है । नव-विवाहिता ननद ससुराल से पीहर आई है । भाभियाँ दिल्लगी में पूछ रही हैं--"बीबी जी कैसा लग रहा है ?" नवोढ़ा दिल की कसक के साथ कह रही है--"भाभीजी ! दिन में अँधेरा-अँधेरा दिख रहा है ।" पास ही में बैठे, प्रभु-प्रेम के प्यासे, स्वामीजी भीतर-भीतर तड़प उठे--"प्रेम करना तो ये जानती हैं । प्रिय के बिना इनको दिन में भी अँधेरा दिख रहा है, और एक मैं हूँ कि अपने को शरणागत कहता हूँ और शरण्य से मिले बिना चैन से रहता हूँ ।" प्रिय-मिलन की उत्कण्ठा तीव्रतर होती जा रही है।


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उत्कण्ठा बढ़ती गई । सम्पूर्ण अहं को उत्कण्ठा बनाकर वह शरणागत शरण्य से मिलने के लिए व्याकुल हो उठा । गर्मी के दिन हैं । दो-मंजिले मकान पर छत के ऊपर टिन के शेड के नीचे निर्विघ्न बैठे हैं । प्यास लगी है । पास में जल भी रखा है, परन्तु प्रिय से अभिन्न होने की उतकण्ठा इतनी तीव्र है कि जल पिया नहीं जाता ।‘नहीं, सत्य मिले पहले, जल पीउँ, पीछे । यदि जल पीते ही पीते प्राण-पखेरु उड़ गये तो ।’ फिर क्या था । माँग की जागृति में ही माँग की पूति निहित है, यह सत्य जीवन में प्रत्यक्ष हो गया ।


16


गुरु के शरीर के शांत होने का समय आया । स्वामीजी महाराज ने गुरु से कहा--"आपका शरीर कुछ काल और रह जाता तो मेरी साधना के लिए अच्छा रहता ।" यह सुनकर श्रीसद्गुरुदेव ने उत्तर दिया कि "ऐसा क्यों सोचते हो ? मेरे अनेकों शरीर हैं, तुम्हें जब आवश्यकता होगी मैं मिल जाऊँगा ।" सद्गुरु के सद्शिष्य ने गुरु-वाणी को गाँठ बाँध लिया, उसके बाद अनेकों बार का अनुभव उन्होंने निज श्रीमुख से हमें सुनाया है कि साधन की दृष्टि से जब-जब स्वामीजी के दिल में कोई प्रश्न उठता, तत्काल कोई न कोई संत मिल जाते और समाधान कर जाते । श्री महाराजजी को यह पक्का अनुभव हो गया कि उनके सद्गुरु के अनेकों शरीर हैं और किसी-न-किसी रुप में वे मार्ग-दर्शन कर देते हैं । इतना निश्चय होते ही श्री स्वामीजी महाराज निशिचन्त हो गये । एक समय एक समस्या को लेकर गंगाजी के तट पर अकेले बैठे थे । गुरुदेव की याद आई । श्री स्वामीजी ने तुरंत सोच लिया कि जब अनेकों शरीर गुरुदेव के हैं तो यह एक शरीर भी तो उन्हीं का है । किसी भी शरीर के माध्यम से जब वे मार्ग दिखा सकते हैं, तो यह शरीर भी तो उनका ही अपना है । इसके माध्यम से भी वे मेरी मदद कर सकते हैं । इतनी बात ध्यान में आने भर की देर थी कि समस्या हल होने में देर नहीं लगी । फिर तो गुरु-तत्व को अपने ही में विद्यमान जानकर बाह्य गुरु की आवश्यकता को ही उन्होंने समाप्त कर दिया । शरीर के लिये संसार का आश्रय तो वे पहले ही छोड़ चुके थे, अब गुरु-तत्व को स्वयं में ही विद्यमान जानकर इस दिशा में भी वे सर्वथा स्वाधीन हो गये । भीतर-बाहर परमानन्द छा गया ।


17


देश में स्वातंत्र्य-आन्दोलन चल रहा था । महात्मा-गाँधी के निर्देशन पर सारे देश में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की धूम मची थी । सरकार के द्वारा दमन का चक्र चल रहा था और गुलामी की घुटन में नित नये आजादी के दीवाने प्रकट होकर जन्मसिद्ध स्वराज्य पाने के लिये हँसते-हँसते फाँसी की तख्ती चूम रहे थे । श्री स्वामीजी महाराज जैसा सर्वांश-परिपूर्ण व्यक्तित्व वाला निर्भीक, दिलदार, उत्साही भला देश की सेवा की लहर से अछूता कैसे रह जाता ? वे कूद पड़े स्वतंत्र्य-आन्दोलन की लहर में । भाषणों के द्वारा स्वाधीनता के प्रति जन-जागरण की सेवा, विदेशी कपड़ों की दुकान पर ‘पिकेटिंग’ करना, जेल जाना --सब कुच किया । बाल-मुड़ाये हुए चिकने-चिकने सिर पर पुलिस की लाठी खाने में बड़ा मजा आयेगा--इस उत्साह से भरकर पिकेटिंग में व्यस्त नेत्रहीन युवक-संन्यासी को देखकर बेजान लोगों में भी जान आ जाती थी । एक दिन स्वामीजी महाराज के गुरुदेव के मित्र एक संत महापुरुष ने इनको बड़े जोर-शोर से स्वराज्य के आन्दोलन में लगा हुआ देखकर इनके पास आकर बड़े प्यार से पूछा--‘बेटा, क्या तुमने इसलिए घर छोड़ा था ?’ स्वामीजी महाराज ने बड़ी दृढ़ता के साथ स्पष्ट उत्तर दिया--‘बिल्कुल नहीं । देश की सेवा के राग को मैं विचार से नहीं मिटा सका इसलिए इस कार्य में लग गया हूँ ।’

पुन: उक्त संत महापुरुष ने पूछा--‘तुम्हारा हाल क्या है ?’ स्वामीजी ने उत्तर दिया--"मैं सर्व-काल में अपनी अखण्ड शान्ति में विराजमान हूँ, मैं करता-कराता कुछ नहीं हूँ ।’ यह उत्तर सुनकर वे संत बहुत प्रसन्न हुए । बड़े प्यार से स्वामीजी महाराज की पीठ थपथपाई और यह कहकर चले गये कि ‘खूब सेवा करो ।’


18


"एक बार मथुरा से आगरा जाते समय मैं (श्री स्वामीजी महाराज) यमुना किनारे-किनारे जा रहे था । एक स्थान पर ढाह गिरी और हम पानी में जा पड़े । नदी चढ़ी हुई थी । हाथ की लाठी भी छूठ गयी थी । दिखाई देता नहीं था कि किधर को तैरें । भगवान के भरोसे शरीर को ढीला छोड़ दिया । लगा जैसे किसी ने हाथ पकड़कर खुश्की पर डाल दिया । उठने को हाथ धरती पर टेका तो (पहली वाली नहीं) एक दूसरी लाठी हाथ में आ गई थी ।"

गीता में कथित भगवत्‌वाणी श्री महाराजजी के लिए प्रत्यक्ष हो गई-- "जो लोग अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरे चरणों के नित्य आश्रित हैं, उन जीवों के योग-क्षेम का मैं वहन करता हूँ ।" गीता में जो कहा था श्री महाराजजी के साथ वह करके दिखा दिया । शरण्य और शरणागत की जगत्‌पावनी मधुमयी लीला धन्य है ।


19


साधुशाही रहती थी । गाँव के किनारे शाम के समय किसी स्थान पर ठहरना था । विवेक-विरोधी वातावरण देख श्री स्वामीजी महाराज वहाँ से रात्रि में ही चल दिये । सारी रात चलते रहे । शरीर बहुत थक गया था । नौका से पार होते समय मल्लाह ने भजन गाया, जिसका आशय यह था कि ‘श्याम का दास हो गया बेदाम का ।’ भजन सुनकर स्वामीजी के हॄदय में प्रीति का भाव उमड़ पड़ा । उसी मस्ती में नदी के पार उतर-कर अकेले ही चल पड़े । नदी का कछार कँटीला था, जमीन दलदल थी, किसी से रास्ता पूछने का उनका नियम नहीं था । स्वयं रास्ता बताने वाला कोई राही वहाँ नहीं था । बिना देखे, बिना जाने, थका-माँदा शरीर और विरह से उमड़ता हुआ हृदय; श्री स्वामीजी महाराज जिधर ही कदम रखें, पैर काँटों और दलदल में फँस जाय--शरणागत की रक्षा में उपस्थित होने का अवसर शरण्य को मिला । एक व्यक्ति आया और कहने लगा कि ‘बाबा ! अमुक गाँव को जा रहे हो क्या ? मुझे भी वहीं जाना है । चलो मेरे साथ और देखो भाई, मैं बहुत थका हुआ हूँ, धीरे-धीरे चलूँगा ।’ ऐसा कहकर वे श्री स्वामीजी महराज को काँटा-कुशा से बचाकर ठीक रास्ते से निकालकर लिवा गये । जब गाँव नजदीक आ गया और पक्की सड़क आ गयी तो यह कह करके गायब हो गये कि मुझे यहाँ से दूसरी तरफ जाना है । श्री स्वामीजी महाराज को उनका आत्मीय व्यवहार एवं कुसमय में उनका सहारा प्रेम-भाव को अति तीव्र करने वाला मालूम हुआ । विरह आँखों से छलकने लगा । हृदय में प्रतिध्वनि होने लगी-- हे मेरे प्यारे, कितना ध्यान रखते हो ! बिना बुलाये आ गये ! जिधर मुझे जाना था उधर के ही राही बने ! और प्यारे, जैसी मेरी थकी हुई दशा थी जिसमें मैं खुद ही जल्दी-जल्दी नहीं चल सकता था, वैसी ही थकी हुई दशा अपनी बनाकर धीरे-धीरे मुझे चलाकर गाँव तक पहुँचा दिया ! तुम्हारी महिमा अपरम्पार है !


20


प्रेम-रस में डूबे, फिर भी बाह्य दृष्टि से बड़े ही सजग, निर्भीकता-पूर्वक रास्ते चलते हुए बाबा से किसी ग्रामीण ब्रजवासी ने बड़े प्यार से पूछा--बाबा ! लाला-लाली के प्रति आपका क्या भाव है ? स्वामीजी ने उत्तर दिया-- भैया, मैं तो प्रिया-प्रियतम का फुटबाल हूँ । वे चाहे जिधर ठुकरा दें उधर चला जाता हूँ । इसमें बड़ा रस है । दोनों की दृष्टि मुझ पर लगी रहती है । प्रियतम प्रिया की ओर फेंकते है; दोनों के चरण-स्पर्श के आनन्द में आनन्दित रहता हूँ । मेरा अपने में अपना कुछ नहीं है । अनुपम खिलाड़ी के हाथ का खिलौना हूँ । वे दोनों मुझे बहुत प्यार करते हैं ।


21


किसी महापुरुष की जीवनी इसलिए लिखी जाती है कि पाठकगण उससे प्रेरणा प्राप्त कर अपने जीवन को उन्नत बनाने में उसका उपयोग कर सकें । इस दृष्टि से श्री स्वामीजी महाराज की जीवनी लिखने का संकल्प परिचित मित्रों के मन में बार-बार उठता रहा है । परन्तु श्री स्वामीजी महाराज ने इस बात को कभी पसन्द नहीं किया कि उनकी जीवन-गाथा लिखी जाय । एक आदर्श शरणागत संत के रुप में उन्होंने परमात्मा की ही महिमा को धारण करना एवं प्रकाशित करना पसन्द किया । उन्होंने ज्ञान और प्रेम को ही दिव्य-चिन्मय तत्व के रुप में प्रकट करना पसन्द किया । अपने सीमित अहम्‌ के लेश-मात्र का भी उल्लेख उन्हें प्रिय नहीं था । उनकी अमर वाणी है--

(1)मेरा कुछ नहीं है,
(2)मुझे कुछ नहीं चाहिए,
(3)मैं कुछ नहीं हूँ ।

-सन्त जीवन दर्पण (मानव सेवा संघ) पुस्तक से

॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you lovable! ॥

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