वर्तमान की निर्दोषता को स्वीकार किए बिना किसी के जीवन में निर्दोषता की अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकती। यह सभी का अनुभव है कि सर्वांश में तो कोई अपने को दोषी मानता ही नहीं। गुण और दोष-युक्त स्वीकृति सभी में स्वभाव से ही होती है। दोष की स्वीकृति भूतकाल की घटनाओं के आधार पर और गुणों की स्वीकृति स्वभाव-सिद्ध होती है। यदि मानव अपने में से किए हुए दोषों के त्याग का महाव्रत लेकर केवल स्वभाव-सिद्ध निर्दोषता को स्वीकार करे, तो गुण-दोष-युक्त द्वन्द्वात्मक स्थिति का नाश हो जाता है, जिसके होते ही अहम्‌-भाव रुपी अणु सदा के लिए मिट जाता है और फिर एकमात्र निर्दोषता ही निर्दोषता रह जाती है, जो पहले भी थी, अब भी है और सदैव रहेगी ही। -स्वामी श्रीशरणानन्दजी

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ ॥ मेरे नाथ ! ॥ ॥ हरि: शरणम्‌ !॥
॥ God's Refuge ! ॥ ॥ My Lord ! ॥ ॥ God's Refuge ! ॥


01) Swami Sharnanandji Maharaj ki Amar-vani (Cassette no. 42B, Santvani Part-7 se)


॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you lovable! ॥

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