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मानव सेवा संघ के
ग्यारह नियम
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1. |
आत्म-निरीक्षण, अर्थात् प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना । |
2. |
की हुई भूल को पुन: न दोहराने का व्रत लेकर, सरल विश्वासपूर्वक प्रार्थना करना । |
3. |
विचार का प्रयोग अपने पर और विश्वास का दूसरों पर, अर्थात् न्याय अपने पर और प्रेम तथा क्षमा अन्य पर । |
4. |
जितेन्द्रियता, सेवा, भगवच्चिन्तन और सत्य की खोज द्वारा अपना निर्माण । |
5. |
दूसरों के कर्तव्य को अपना अधिकार, दूसरों की उदारता को अपना गुण और दूसरों की निर्बलता को अपना बल, न मानना । |
6. |
पारिवारिक तथा जातीय सम्बन्ध न होते
हुए भी, पारिवारिक भावना के अनुरुप ही पारस्परिक
सम्बोधन तथा सद्भाव, अर्थात् कर्म की भिन्नता होने पर भी स्नेह की एकता । |
7. |
निकटवर्ती जन-समाज की यथाशक्ति कियात्मक रुप से सेवा करना । |
8. |
शारीरिक हित की दृष्टि से आहार-विहार में संयम तथा दैनिक कार्यों में स्वावलम्बन । |
9. |
शरीर श्रमी, मन संयमी, बुद्धि विवेकवती, हृदय अनुरागी तथा अहम् को अभिमान शून्य करके अपने को सुन्दर बनाना । |
10. |
सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति से विवेक तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्व देना । |
11. |
व्यर्थ-चिन्तन-त्याग
तथा वर्तमान के सदुपयोग द्वारा भविष्य को उज्जवल बनाना
। |
[द्रष्टव्य-प्रार्थना और इन ग्यारह नियमों की विस्तृत व्याख्या मानव सेवा संघ द्वारा प्रकाशित "मानवता के मूल सिद्धान्त" नामक पुस्तक में देखें ।]
॥
हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you
lovable! ॥
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