मानव-सेवा-संघ का प्रादुर्भाव केवल इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ है कि मानव मात्र उस जीवन को पा सकता है, जो किसी भी महामानव को मिला है।- स्वामी श्रीशरणानन्दजी

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ ॥ मेरे नाथ ! ॥ ॥ हरि: शरणम्‌ !॥
॥ God's Refuge ! ॥ ॥ My Lord ! ॥ ॥ God's Refuge ! ॥

मानव सेवा संघ के ग्यारह नियम

मानवता के मूल सिद्धान्त

1.

आत्म-निरीक्षण, अर्थात्‌ प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना ।

2.

की हुई भूल को पुन: न दोहराने का व्रत लेकर, सरल विश्वासपूर्वक प्रार्थना करना ।

3.

विचार का प्रयोग अपने पर और विश्वास का दूसरों पर, अर्थात्‌ न्याय अपने पर और प्रेम तथा क्षमा अन्य पर ।

4.

जितेन्द्रियता, सेवा, भगवच्चिन्तन और सत्य की खोज द्वारा अपना निर्माण ।

5.

दूसरों के कर्तव्य को अपना अधिकार, दूसरों की उदारता को अपना गुण और दूसरों की निर्बलता को अपना बल, न मानना ।

6.

पारिवारिक तथा जातीय सम्बन्ध न होते हुए भी, पारिवारिक भावना के अनुरुप ही पारस्परिक सम्बोधन तथा सद्भाव,
अर्थात्‌ कर्म की भिन्नता होने पर भी स्नेह की एकता ।

7.

निकटवर्ती जन-समाज की यथाशक्ति कियात्मक रुप से सेवा करना ।

8.

शारीरिक हित की दृष्टि से आहार-विहार में संयम तथा दैनिक कार्यों में स्वावलम्बन ।

9.

शरीर श्रमी, मन संयमी, बुद्धि विवेकवती, हृदय अनुरागी तथा अहम्‌ को अभिमान शून्य करके अपने को सुन्दर बनाना ।

10.

सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति से विवेक तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्व देना ।

11.

व्यर्थ-चिन्तन-त्याग तथा वर्तमान के सदुपयोग द्वारा भविष्य को उज्जवल बनाना ।

[द्रष्टव्य-प्रार्थना और इन ग्यारह नियमों की विस्तृत व्याख्या मानव सेवा संघ द्वारा प्रकाशित "मानवता के मूल सिद्धान्त" नामक पुस्तक में देखें ।]

॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you lovable! ॥

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