अगर आप यह कहें कि ममता तो तोड़ना चाहते हैं, पर तोड़ नहीं पाते। तो कोई बात नहीं; किन्तु इतनी बात तो आप मानते हैं कि आप ममता तोड़ना चाहते हैं और आत्मीयता जोड़ना चाहते हैं ? अगर आपने इतनी बात मान ली है, तो व्यथित हृदय से इतना ही कह दीजिये कि, हे प्यारे! हम आपको अपना मानना चाहते हैं, पर मान नहीं पाते, हम ममता तोड़ना चाहते हैं, पर तोड़ नहीं पाते! व्यथित हृदय से इतना कहकर मौन हो जाइए। आपको पता भी नहीं चलेगा कि ममता कैसे टूट गई और आत्मीयता कैसे आ गई!- स्वामी श्रीशरणानन्दजी

मन्द-मन्द वर्षा हो रही है। प्रत्येक बूँद उनकी अहैतुकी कृपा का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर कृतकृत्य कर रही है।न जाने उन्हें अपने शरणागतों की हर चीज इतनी प्यारी क्यों लगती है! इतना ही नहीं, अपने दिये हुए को पाकर ही क्यों बिक जाते हैं! और पतित-से-पतित प्राणियों को भी अपनाने के लिये क्यों आकुल हैं! न जाने साधक प्रमादवश क्यों नहीं उन्हें अपना मानता? पर वे तो सर्वदा सभी के सब कुछ होने के लिये तत्पर हैं।- स्वामी श्रीशरणानन्दजी

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ ॥ मेरे नाथ ! ॥ ॥ हरि: शरणम्‌ !॥
॥ God's Refuge ! ॥ ॥ My Lord ! ॥ ॥ God's Refuge ! ॥

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‘हे नाथ!’ पुकार की महिमा मूक सत्संग
प्रभु से अपनापन जीवन-पथ पुस्तक से चरित्र-निर्माण मानव की मांग पुस्तक से
स्वामीजी के विषय में (प्रबोधनी) सन्त जीवन दर्पण पुस्तक से एक अदिव्‌तीय संत
मार्मिक बातें क्रान्तिकारी सन्तवाणी

वर-वधू को आशीर्वचन

जगत्‌ में भगवत्‌-दर्शन

जगत्‌ में भगवत्‌-दर्शन करनेका जो ज्ञान है, वह तो जगत्‌ को परमात्मा जान लेता है यानी जगत्‌ में परमात्माको जान लेना है। भाई ! जगत्‌ परमात्मा कैसे हो सकता है? जगत्‌ में परमात्मा तो सभी मान लेते हैं, बहुत आसान बात है। परंतु पूर्ण आस्तिकता तो यह है कि जगत्‌ और परमात्माका विभाजन कभी हुआ ही नहीं। जिसका विभाजन हो जाय, उसका अस्तित्व ही नहीं है।

तो चाहे तो जगत्‌ के अभावसे जगत्‌ और परमात्माके भेदका नाश कर लो। देखिये, जगद्‌रुपमें ही अगर परमात्माका दर्शन हो तो यह बहुत ऊँचा ज्ञान है। सही ज्ञान तो यही है। तो भाई ! जगत्‌ में अपने प्यारे का दर्शन करो यानी जगत्‌ में प्रभु को जानो और फिर प्रभुकी दी हुई योग्यता, सामर्थ्य तथा वस्तु आदिसे जगत्‌ की सेवा करो।

प्रीतिका क्रियात्मक रुप सेवा है। सेवासे क्या होगा? सेवाके अन्तमें प्रीतिका जो भावात्मक रुप है प्रिय की स्मृति, प्रियकी प्रियता, प्रियकी आत्मीयता वह उदित होती है। इतनी गहरी अत्मीयता कि कोई और है ही नहीं, किसी औरपर आजतक दृष्टि गयी ही नहीं। अनन्त काल हो गया, कभी अपने प्यारेको पूरा देख ही नहीं पाये। यह प्रियता की विशेषता है !

प्रियता जब उदित होती है तो फिर कभी उसका अन्त नहीं होता। उस प्रियतामें कितनी सुन्दरता है, उस प्रियतामें कितना आकर्षण है, उस प्रियतामें कितना ऐश्वर्य है, कितना रस है, इसके लिये शब्दावली नहीं हो सकती। अनन्त, अनन्त, अनन्त कह दो। अनन्त सौन्दर्य, अनन्त रस, अनन्त प्रियता !

भाई! जब कोई और है ही नहीं तो समस्त प्रियता किसी एकमें विलीन होगी कि नहीं? जब समस्त प्रियता एकमें होगी, तब मन कहाँ जायगा और कैसे जायगा? आज हम मनको पकड़-पकड़कर दबाकर रखते हैं। आप जानते ही हैं कि श्रमसाध्य साधन अखण्ड नहीं हो सकता और किसी अन्यकी सत्ता स्वीकार करनेपर चित्तका निरोध ईमानदारीसे हो ही नहीं सकता।

भाई! देखो, गहरी नींदमें सबका निरोध होता है। किसी अन्यकी सत्ता स्वीकार करते हुए वास्तविक निरोध नहीं होगा और श्रमासाध्य साधन अखण्ड होगा नहीं। इस कारण विश्वासमार्गकी दृष्टिसे जगत‌ ही में प्रभुका दर्शन करो। जगत्‌ अपने प्यारे की ही अभिव्यक्ति है और कुछ नहीं। जब अपने प्यारे से भिन्न और कुछ है ही नहीं तो प्रीति और प्रियतम से भिन्न न कभी कुछ है, न कभी हुआ और न आगे होगा। वर्तमानमें और कुछ है ही नहीं, आगे कुछ होगा नहीं और पहले कुछ हुआ नहीं।

प्रीतिने प्रियतमको रस दिया और प्रियतम ने प्रीतिको प्रकट किया। प्रियतम ही प्रीतिके रुपमें अभिव्यक्त होता है और प्रीति ही प्रियतम को रस देती है। इसका वर्णन चाहे सीतारामके चरित्रमें हो, चाहे राधेश्यामके चरित्रमें हो और चाहे गौरीशंकरके चरित्रमें हो। आप जहाँ-कहीं देखेंगे और जो कुछ मिलेगा, उसमें एक पक्ष प्रीतिका होगा और दूसरा पक्ष प्रियतमका होगा। उसका नाम कुछ भी रख लीजिये। उस चरित्रके भेद कितने ही कर लीजिये और उसका वर्णन किसी प्रकार से कीजिये। यह जितना भी वर्णन होगा, वह प्रीतिकी वास्तविकताका नहीं होगा, उसका संकेतमात्र होगा।

तात्पर्य यह निकला कि यदि आपको सचमुच साधन करना है तो भाई! जगत्‌ में प्रभु का दर्शन करो। जगत्‌ में प्रभुका दर्शन करनेका फल यह होगा कि कोई और है, कोई गैर है, यह चीज बिलकुल मिट जायगी। कल्पना करो, यदि किसी को विश्वास न हो और जगत्‌ में प्रभु का दर्शन न कर सके तो कम-से-कम वह जगत्‌ का भी दर्शन न करे। जगत्‌ को जगत्‌-बुद्धिसे देखनेवाला व्यक्ति साधक नहीं हो सकता।

तो या तो जगत्‌ में प्रभुका दर्शन करो और अगर आपको जगत्‌ जगत्‌ मालूम होता है तो आप जगत्‌ से विमुख हो जायँ। क्या आपको मालूम है, जगत्‌ कहाँसे शुरु होता है? ‘मैं’ से। जहाँ ‘मैं’ का आपको भास होता है कि ‘मैं’ हूँ, वहींसे किसी-न-किसी प्रकारकी कामना पैदा होती है और किसी-न-किसी प्रकारकी जिज्ञासा होती है तो कामना और जिज्ञासाका पुञ्जरुप ‘मैं’ है। ‘मैं’ के इस पार जगत्‌ और उस पार जो कोई हो, सो।

तो भाई! ‘मैं’ से विमुख हो जाओ। ‘मैं’ से विमुख होते ही निर्वासना आयगी। निर्वासना आते ही जगत्‌ का दर्शन नहीं होगा। यह क्या है? यह बुद्धिपूर्वक आगे बढ़नेका तरीका है कि भाई! जगत्‌ में भगवत्‌-बुद्धिकी स्थापना नहीं हो पाती, सुन लेते हैं, मान लेते हैं, लेकिन सचमुच अपने प्यारेका दर्शन नहीं कर पाते तो भाई! वस्तुको देखकर क्या करेंगे, व्यक्तिको देखकर क्या करेंगे, परिस्थितियोंसे सम्बन्ध जोड़कर क्या करेंगे?

अरे! साधनका मतलब क्या? जो आपका साध्य नहीं है, उसका त्याग कर दो। जो आपका साध्य नहीं है, उसका त्याग साधन है। जो आपका साध्य है उसका प्रेम साधन है, उससे योग साधन है, उसका बोध साधन है तो या तो साध्यसे योग हो या जो साध्य नहीं है. उसका त्याग हो तो त्यागसे भी साधन आरम्भ होता है और प्रेमसे भी साधन आरम्भ होता है।

प्रेमसे किनका साधन आरम्भ होता है? जो जगत्‌ ही में अपने प्रभुका दर्शन कर सकते हैं। आप यह सोचते होंगे कि वह तो बहुत घटिया भगवान्‌ होगा। जगत्‌ में यदि हम भगवान्‌ को देखेंगे तो वह भगवान्‌ घटिया होगा तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जगत्‌ से अलग करके जिस भगवान्‌ को आप देखेंगे, वह इससे भी घटिया भगवान्‌ होगा। क्यों? जगत्‌ में जब आप भगवान्‌ देखेंगे तो जगत्‌ नहीं रहेगा भाई! और जगत्‌ से अलग करके जब प्रभुको देखेंगे तो जगत्‌ हमेशा रहेगा। तब चकाचौंध रहेगा। उसमें कभी तो कहेंगे कि बड़ा आनन्द आया है, बड़ा सुख है और कभी निरसता।

जगत्‌ से अलग करके जो भगवान्‌ देखा जाता है, वह बहुत बढिया नहीं होता। वह बुद्धिमानोंका भगवान्‌ होता है और बुद्धिमान हमेशा सीमित होता है, सीमित तो भई जगत्‌ से अलग भगवान्‌ को मानकर देखने का उपाय और जगत्‌ में भगवान्‌ को देखने का उपाय और जगत्‌ को भगवान्‌ देखने का उपाय। यानी जगत्‌ में भगवान्‌, जगत्‌ भगवान्‌ और जगत्‌ से अतीत भगवान्‌ तीनों तरीकोंसे देख सकते हैं और तीनों ही साधन-दृष्टिसे मान्य हैं। तीनोंका ही महान्‌ फल है।

भाई! एक ऐसा साधन होता है कि जिससे आगे दूसरा साधन उदित होता है तो जगत्‌ भगवान्‌ ही है और कुछ नहीं है--यह विश्वास जिसको हो जाय, उसका भगवान्‌ सबसे बढ़िया रहता है। यह कृपासाध्य बात है, इससे सभी विकार समूल नष्ट हो जाते हैं।

‘हे नाथ’ ! पुकार की महिमा

‘मेरे नाथ’ - इसका प्रादुर्भाव हुआ था उदयपुर में । एक दु:खी प्राणी या दु:खी साधक को देखकर यह उदित हुआ । ’मेरे नाथ’ - आप मेरे हैं, इसलिये प्यारे है । ’नाथ’ पद का प्रयोग मालूम है किसके लिये किया जाता है ? जो रक्षक हो और समर्थ हो ।

‘मेरे नाथ’ वाक्य से जो बोधार्थ नि:सृत होगा, उसके तीन रूप होंगे - प्रियता, निश्चिन्तता और निर्भयता । यदि किसी भाई या बहिन के जीवन में निश्चिन्तता और निर्भयता है तो आप ही बताइये, इससे ऊँचा जीवन और क्या हो सकता है ? परन्तु ध्यान रहे, यह निश्चिन्तता और निर्भयता नासमझी से भी होती है, और बेशर्माई से भी होती है । बेशर्माई से जो होती है, उसमें प्रियता नहीं होती, उसमें सुखासक्ति होती है । इसलिये निश्चिन्तता और निर्भयता से पहले प्रियता अपेक्षित है ।

मैं तो लोगो से कहता हूँ कि यदि तुम्हारे दिल में घबराहट हो और उस घड़ी कहीं तुम्हारे लबपर आ जाय - ‘मेरे नाथ !’ तो आप सच मानिये, आपकी घबराहट नाश हो जायगी । उस क्षण यदि आपको याद आ जाय कि आप अनाथ नहीं, सनाथ हैं तो भय कैसे निवास करेगा ? भय तो अनाथ के जीवन में निवास करता है । जो सनाथ है, उसके जीवन में भय कहाँ से आयेगा ? उसके जीवन में नीरसता कहाँ से आयेगी ? वह असमर्थता से पीड़ित क्यों होगा ? असमर्थता से पीड़ित वही होगा, जो अनाथ है । नन्हा-सा बालक अपनी माँ की गोद में क्या असमर्थता का अनुभव करता है ? (जीवन दर्शन)

‘मेरे नाथ’ से सुन्दर शब्द अपनी भाषा में नहीं हैं । (प्रेरणा पथ-पेज-१६५)

‘मेरे नाथ’-इस वाक्यका उच्चारण करते ही ऐसा हृदयमें भास होता है कि हम अनाथ नहीं हैं, कोई हमारा अपना है। और जो हमारा अपना है, वह कैसा है? वह समर्थ है और रक्षक है। अब आप सोचिये कि समर्थ और रक्षकके होते हुए हमारे और आपके जीवनमें चिन्ता और भयका कोई स्थान ही नहीं रहता।(संतवाणी-८-पेज-३५)


॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you lovable! ॥

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