॥ हरि: शरणम् !॥ |
॥ मेरे नाथ ! ॥ |
॥ हरि: शरणम् !॥ |
॥ God's Refuge ! ॥ |
॥ My Lord ! ॥ |
॥ God's Refuge ! ॥ |
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प्रश्न- स्वामी जी !
भगवान् हमारी चाह पूरी क्यों नहीं करते ?
उत्तर- चाह तो उन्होंने
अपने बाप दशरथ की भी पूरी नहीं की । फिर तुम्हारी कैसे कर
दें ? जो सीता ने चाहा, नहीं हुआ । जो कौशल्या ने चाहा, नहीं
हुआ । फिर तुम्हारे चाहने से क्या होगा ?
प्रश्न- महाराज जी !
सृष्टि की सेवा करने वाला प्रभु को कैसे प्यारा लगता है ?
उत्तर- जैसे तुम्हारे
लड़के की सेवा करने वाला तुम्हें प्यारा लगता है ।
प्रश्न- स्वामी जी !
भगवान् का दर्शन कैसे हो सकता है ?
उत्तर- भगवत्-प्रेम का
महत्व है, भगवत्-दर्शन का कोई महत्व नहीं । भगवान् रोज
दिखें और प्यारे न लगें, तो तुम्हारा विकास नहीं होगा ।
भगवत्-विश्वास, भगवत्-सम्बन्ध और भगवत्-प्रेम का महत्व है
।
प्रश्न- पढ़ाई-लिखाई बढ़
रही है, फिर भी दोष कम क्यों नहीं हो रहे?
उत्तर- कोई दोष तब करता
है, जब अपनी ही बात नहीं मानता । पढ़ाई-लिखाई तो एक प्रकार
की योग्यता है । योग्यता जब निज विवेक के अधीन नहीं रहती है,
तो बड़े-बड़े अनर्थ कर डालती है ।
प्रश्न- महाराज जी ! क्या
भगवत्-प्रेम भी कामी और कामिनी वाले प्रेम की तरह होता है?
उत्तर- कामी कामिनी को
प्रेम नहीं करता । वे एक-दूसरे को नष्ट करते हैं, खा जाते
हैं । भगवत्-प्रेम तो प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों को
आह्लादित करता है ।
प्रश्न- दु:ख का आना मानव
के पतित अथवा पापी होने का परिचय है क्या?
उत्तर- दु:ख का आना पतित
होने का फल नहीं है । दु:ख तो सुख-भोग की आसक्ति को मिटाने
के लिए आता है ।
प्रश्न- स्वामी जी !
भगवान् हमारी चाह पूरी क्यों नहीं करते ?
उत्तर- चाह तो उन्होंने
अपने बाप दशरथ की भी पूरी नहीं की । फिर तुम्हारी कैसे कर
दें ? जो सीता ने चाहा, नहीं हुआ । जो कौशल्या ने चाहा, नहीं
हुआ । फिर तुम्हारे चाहने से क्या होगा ?
प्रश्न- व्यर्थ-चिन्तन
से कैसे बचा जाए?
उत्तर- व्यर्थ-चिन्तन
भुक्त-अभुक्त का प्रभाव है । आप उससे असहयोग करें । न उसे
दबाएं, न उससे सुख लें, न भयभीत हों, और न तादात्म्य रखें ।
तो व्यर्थ-चिन्तन प्रकट होकर नाश हो जाएगा ।
प्रश्न- भक्ति कैसे हो?
उत्तर- संसार को अपने लिए
अस्वीकार करने और केवल भगवान् को ही अपना मानने से
भक्ति-भाव की अभिव्यक्ति होती है ।
प्रश्न-दु:खी होना और
करुणित होना एक बात है क्या?
उत्तर- नहीं, दु:ख में
जड़ता आती है । करूणा में चेतनता आती है, संसार से सम्बन्ध
टूटता है ।
प्रश्न- रोगी व्यक्ति को
रोगावस्था में क्या करना चाहिए?
उत्तर- प्रत्येक अवस्था में
प्रभु की अहैतुकी कृपा का अनुभव होता रहे और हृदय उनकी
प्रीति से भरा रहे । शरीर के रहने, न रहने से साधकों को कोई
लाभ-हानि नहीं होती । शरीर को बनाए रखने की कामना का त्याग
आवश्यक है ।
प्रश्न- सच्चा सुख मनुष्य
को कब और कैसे मिल सकता है?
उत्तर- वास्तव में
मानव-जीवन की यही सबसे बड़ी समस्या है । इसके हल करने में
प्राणी सदा स्वतन्त्र है । इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक
विचार न करना बड़ी भारी भूल है ।
मानवता प्राप्त होने पर मनुष्य
मानवता प्राप्त होने पर मनुष्य को वह सुख मिल जाता है जिसमें
दु:ख नहीं होता अर्थात् सच्चा सुख मिल जाता है ।
सहज भाव से मूक भाषा में प्रेम
पात्र से प्रार्थना करो--"हे नाथ ! इस हृदय को अपनी प्रीति
से भर दो । इस शरीर को दु:खियों की सेवा में लगा दो । बुद्धि
को विवेकवती बना दो । इस जगत् रुपी वाटिका में मुझे एक
सुन्दर पुष्प बना दो । मैं सदा आपकी कृपा की प्रतीक्षा में
रहूँ ।" ऐसी प्रार्थना करने से प्रेम-पात्र तुम्हें अपनी
सेवा करने के योग्य अवश्य बना लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
प्रश्न- शारीरिक कष्टों को
कैसा भूला जाए?
उत्तर- भूला न जाए, सहा
जाए-चिंता, विलाप से रहित होकर। यह तप है। तप से शक्ति बढ़ती
है। भूलने से तो जड़ता आवेगी। शरीर से तितिक्षा होनी चाहिए।
तितिक्षा का अर्थ है, हर्षपूर्वक कष्ट को सहन करना।
प्रश्न- मानव-सेवा-संघ की
पहली प्रार्थना में यह कहा जाता है कि दु:खियों के हॄदय में
त्याग का बल प्रदान करें। दु:खी बेचारा क्या त्याग करेगा?
उत्तर- जब मनुष्य कुछ चाहता
है और उसका चाहा हुआ नहीं होता है, तो वह दु:ख का अनुभव करता
है। इससे सिद्ध हुआ कि दु:ख का कारण ‘चाह’ है। अत: दु:खी
दु:ख से छुट्टी पाना चाहता है, तो उसे चाह का त्याग कर देना
चाहिए। चाह का त्याग करने में मानव मात्र स्वाधीन है।
प्रश्न- पूजा का क्या अर्थ
है?
उत्तर- संसार को भगवान् का
मानकर उन्हीं की प्रसन्नतार्थ संसार से मिली हुई वस्तुओं को
संसार की सेवा में लगा देना ही पूजा है।
प्रश्न- भगवत्प्राप्ति में
विघ्न क्या है?
उत्तर- संसार को पसन्द करना
ही सबसे बड़ा विघ्न है।
प्रश्न- कर्म किस प्रकार
करना चाहिए?
उत्तर- कर्म विश्व-प्रेम के
भाव से करना चाहिए। ऐसा करने से भोगों का यथार्थ ज्ञान हो
जाता है। भोगों का यथार्था ज्ञान होने पर त्याग अपने आप होता
है। फिर कर्म करने में रुचि नहीं रहती। करने की राग की
निवृति हो जाती है और योग प्राप्त होता है।
प्रश्न- भगवान् हमसे प्रेम
करते हैं, यह कैसे मालूम हो?
उत्तर- भगवान् पर विश्वास
हो और उनसे हमारा सम्बन्ध हो तब मालूम हो सकता है। जैसे माता
अपने बच्चे के लिए तरसती है, वैसे ही भगवान् अपने भक्त के
लिए तरसते हैं। बच्चा काला-कलूटा, गूँगा-बहरा, लूला-लँगड़ा
कैसा भी हो, माता उससे प्रेम करती है। बच्चा भी यह बात समझता
है। भगवान् में तो माता से अनेक गुना वात्सल्य है। फिर वे
भक्त से प्रेम करें, इसमें कहना ही क्या? अत: जो एकमात्र
भगवान् को ही मानते हैं, उनको भगवान् का प्रेम मिलता है।
इसमें सन्देह नहीं है। यह भक्तों का अनुभव है। ईश्वर
प्रेमीभक्त को ढूँढ़ता है। विचारशील साधक ईश्वर को ढूँढ़ता
है।
प्रश्न- अपने दोष कैसे
देखें और उनको कैसे मिटाएँ?
उत्तर- गुण और दोषों को
देखने की शक्ति प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान है। जिस
योग्यता से हम दूसरों के दोषों को देखते हैं, उसी योग्यता से
अपने दोषों को देखें। अपने दोषों को ठीक-ठीक देख लेने पर
गहरा दु:ख होता है। गहरा दु:ख होने से दोष दूर हो जाते हैं।
दूसरों के दोष और अपने गुण देखने से मनुष्य का विकास रुक
जाता है और अभिमान पुष्ट होता है।
प्रश्न- कभी तो ऐसा मालूम
होता है कि हॄदय में प्रेम है और कभी ऐसा मालूम होता है कि
हॄदय सूना-सा है, प्रेम नहीं है। यह क्या है?
उत्तर- स्वयं साक्षी बनकर
मनके गुण-दोषों को देखना, विश्वास और प्रेम का बार-बार
निरीक्षण करना, यह प्रेममार्ग की साधना नहीं है। साक्षी-भाव
से यह देखना कि गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं, यह तो
विचारमार्ग की साधना है। विश्वास और प्रेम की खोज करना तो
वैसी ही गलती है जैसे कोई बीज बोकर उसे खोद-खोदकर देखे कि यह
उपजा या नहीं। अत: साधक को चाहिये कि प्रभु को अपना समझे,
उनपर दृढ़-विश्वास करे, विश्वास में विकल्प न आने दे।
शरीर,मन,इन्द्रियों और बुद्धिको तथा अपने-आपको पूर्णतया
भगवान् के समर्पण करके सब प्रकार से उनपर निर्भर हो जाय।
आश्चर्य की बात तो यह है कि
मनुष्य संसारपर जितना भरोसा करता है, उतना भगवान् पर नहीं
करता। जैसे कहीं जानेवाला मुसाफिर पहले से सीट रिजर्व करा
लेता है, तो उसको यह भरोसा रहता है कि ठीक समय पर पर सीट
जरुर मिल जायगी। अत: वह निश्चिन्त हो जाता है, यद्द्यपि
उसमें अनेकों विघ्न भी आ सकते हैं। विघ्न असम्भव नहीं है, तो
भी उसपर भरोसा कर लेता है। संसारपर भरोसा करके बहुत बार धोखा
खाया है एवं भगवान् पर भरोसा करनेवाले को कभी धोखा नहीं
हुआ। यह मानते हुए भी मनुष्य भगवान् पर निर्भर नहीं होता,
इससे बढ़कर दु:ख और आश्चर्य क्या होगा?
मनुष्य स्वयं अलग रहकर अपने
मन, बुद्धि और इन्द्रियोंको भगवान् में लगाना चाहता है,
यहाँसे ही गलती होती है। प्रेमका सम्बन्ध साधकसे है न कि
उसके मन, इन्द्रिय और बुद्धिसे। प्रेममार्ग में चलनेवाला
पहले तो अपनेको अपने प्रियतम के प्रेमकी लालसा और बादमें
प्रेम समझता है, प्रेमी प्रेममें विलीन हो जाता है। प्रेम और
प्रेमीमें भिन्नता नहीं रहती। अत: प्रेममार्गके साधकके
जीवनमें भगवान् का प्रेम, भरोसा और कृपा सदा सजीव बने रहने
चाहिये, भावकी शिथिलता नहीं होनी चाहिये।
प्रश्न- मैं प्रतिदिन दो
घण्टे परम्परागत ढंग से पूजा करता हूँ। घर वाले उसका विरोध
करते हैं तथा उसमें बाधा डालते हैं। क्या किया जाए?
उत्तर- पूजा का वास्तविक
अर्थ है--भगवान् के नाते और उन्हीं की प्रसन्नता के लिए
संसार की सवा करना। जिस समय घर वाले आप से किसी काम की
अपेक्षा करते हों और आप उसी समय पूजा में बैठ जाते हैं, तो
उनका विरोध करना उचित ही है। अत: पूजा के वास्तविक अर्थ को
अपना कर घर वालों को निष्काम भाव से सेवा करें। यदि विधिवत्
पूजा करने का राग ही है, तो उसका समय जरुरी कार्य करने के
पहले या बाद में रख सकते हैं।
प्रश्न- कैसे समझे कि ममता
का नाश हो गया?
उत्तर- पेट भरने पर क्या
परोसने वाले से पूछा कि मेरा पेट भरा या नहीं? ममता का त्याग
होने पर आपको स्वत: विदित हो जाएगा।
प्रश्न- यह जानते हुए भी कि
ममता और कामना जीवन में नहीं रखनी चाहिए, जब हमारे ऊपर कोई
दु:ख आता है तो दु:खी होकर विचलित हो जाते हैं। इससे छुटकारा
पाने का उपाय क्या है?
उत्तर- जिन वस्तुओं और
व्यक्तियों द्वारा हम सुख भोगने की आशा करते हैं, उनके वियोग
से अवश्य ही दु:खी होना पड़ेगा। अत: यदि हम चाहें कि दु:ख से
छुटकारा मिले, तो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति एवं अवस्था से
हमें सुख भोगना अथवा सुख की आशा करना छोड़ देना चाहिए। तब
जीवन से दु:ख अवश्य ही चला जाएगा।
प्रश्न- स्वामीजी! मन में
बहुत विकार पैदा होते रहते हैं, क्या करुँ?
उत्तर- गहरी वेदना होनी
चाहिए।
प्रश्न- मुझे साधन करते हुए
एक अर्सा हो गया, किन्तु अभी तक सफलता के दर्शन नहीं हुए,
क्या कारण है?
उत्तर- जो मनुष्य असाधन को
बनाए रखकर साधन करते हैं, उनको बहुत दिनों तक साधन करने पर
भी वर्तमान में सिद्धि नहीं मिल सकती।
जो मनुष्य वस्तु और व्यक्ति का
आश्रय लेकर साधन करना चाहते हैं, उनको भी सफलता नहीं मिलती।
इसलिए भगवान् का आश्रय लेकर साधन करो, सफलता अवश्य मिलेगी।
जो साधक देशकाल, परिस्थिति,
वस्तु व व्यक्ति का आश्रय छोड़ कर साधन करता है, उसको शीघ्र
सफलता मिलती है।
‘स्व’ में सन्तुष्ट रहो, मानवता
को महत्व दो और प्रभु पर विश्वास करो-यही साधना है और इसी का
नाम जीवन है। जिसके जीवन में यह बातें आ जाती हैं, उसको
सफलता अवश्य मिलती है।
प्रश्न- सम्मान के सुख से
नुकसान क्या है?
उत्तर- सम्मान का सुख इतना
भयंकर विष है कि विष खाने से तो मनुष्य एक ही बार मरता है,
परन्तु सम्मान का सुख भोगने से कई बार जीना-मरना पड़ता है।
-सन्तवाणी (प्रश्नोत्तर) एवं संत सौरभ पुस्तक से
॥
हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥
॥ O' My Lord! May I find you lovable, May I find you
lovable! ॥